पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/१४२

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१३३ 1 "इसके अतिरिक्त उस साहसी सरदार ने और भी कई अच्छे उपायों से युक्ति-निपुण जासूसों को मीर बाबा की सेना में भेजकर घेरा करने वालों के मन में इस बात का विश्वास उत्पन्न कर दिया कि दारा एक बहुत बड़ी सेना के साथ घेरा तोड़ देने के लिये यहाँ आ रहा है, और अब शीघ्र पहुँ- चना चाहता है । उसने यहाँ तक कह डाला कि हम दारा और उसकी सेना को अपनी आँखों से देख आये हैं । यह युक्ति इतनी सफल हुई कि घरे वालों के छक्के छूट गये। इसमें सन्देह नहीं कि यदि दारा उस समय जा पहुँचता तो मीर बाबा के लोग अवश्य तितर-बितर हो जाते। यह समझकर कि थोड़े-से आदमियों के साथ घेरे का तोड़ना असम्भव है, पहले तो उसका यह विचार हुआ कि सिन्धु नदी पार करके ईरान को चला जाय, परन्तु उसकी बेगम ने एक निर्बल और वाहियात सी बात कहकर उसका यह विचार भंग कर दिया। उसने कहा-'यदि आप ईरान जाने का विचार करेंगे तो खूब समझ लीजिए कि मुझको और मेरी बेटी दोनों को शाह ईरान की लौंडियाँ बनना पड़ेगा, जो ऐसी बेइज्जती है कि हमारे खानदान में किसी को गवारा न होगी।' इस बात को दारा शिकोह और बेगम दोनों भूल गये कि हमायूं जब ऐसी ही आपदाओं में पड़ कर ईरान गया था, और उसकी बेगम भी उसके साथ थी, जब उन दोनों के साथ कोई अनुचित व्यवहार नहीं हुआ था, बल्कि बहुत ही सम्मान और शिष्टाचार से वहाँ उनका स्वागत हुआ था। अस्तु इसी प्रकार विचार करते-करते दारा ने सोचा कि जीवनखाँ पठान के यहाँ जाना उचित होगा। वह एक प्रसिद्ध और बलवान सरदार है, और उसका स्थान भी कुछ बहुत दूर नहीं है। दारा के मन में जीवनखाँ की सहायता का ध्यान आने का कारण यह था कि उसके विद्रोह मचाने और दुष्टता करने के कारण शाहजहाँ ने दो बार उसे हाथी के पाँवों के नीचे कुचलवा डालने की आज्ञा दी थी। पर दोनों ही बार दारा के कहने-सुनने से वह छूट गया था। दारा का इस समय उसके पास जाने का मतलब यह था कि उससे कुछ सैनिक सहायता लेकर वह मीर बाबा को ठट्ठ के दुर्ग से हटा सके, और वह खजाने जो वहाँ के किलेदार के पास हैं, लेकर कन्धार चला जाय और वहाँ से सहज ही में काबुल पहुँच जाय। उसे विश्वास था कि उसके वहाँ पहुँच जाने पर