i १३४ काबुल का सूबेदार महाबतखाँ, जो एक बड़ा भारी अमीर था, और जिसे काबुल वाले बहुत मानते थे, बिना कुछ आगा-पीछा किये बड़े प्रेम से उसकी सहायता करने को तैयार होगा ; क्योंकि काबुल की सूबेदारी उसे इसी की मदद से मिली थी। दारा का यह विचार किसी प्रकार भी बुरा नहीं था, परन्तु उसकी स्त्रियाँ यह विचार सुनकर बहुत ही घबराईं। उन्होंने कहा कि जीवनखाँ के यहाँ जाना उचित नहीं है । बेगम और उसकी पुत्री सिफर शिकोह उसके पैरों में पड़ गईं और प्रार्थना करने लगीं कि आप उधर का विचार छोड़ दें। यह पठान एक प्रसिद्ध डाकू और लुटेरा है, ऐसे आदमी पर भरोसा करना अपनी मृत्यु को आप बुलाना है। उन्होंने यह भी समझाया कि ठट्ठ का घिराव उठा देने की कुछ ऐसी आवश्यकता भी नहीं है। इस लड़ाई-झगड़े में हाथ डाले बिना भी आप काबुल का मार्ग अवलम्बन कर सकते हैं । मीर बाबा भी ठट्ठ का घेरा छोड़कर आपका रास्ता नहीं रोकेगा । परन्तु दारा की उल्टी समझ सदा उसको सीधे मार्ग से भड़का देती थी। उसे उनकी बात बिल्कुल नहीं ऊँची। उसने कहा कि काबुल की यात्रा बहुत ही कठिन और भयानक है, और जिस व्यक्ति के मैंने प्राण बचाये हैं, वह इस समय मेरी सहायता अवश्य करेगा। आखिर बहुत सम- झाने और प्रार्थना किये जाने पर भी वह काबुल न जाकर जीवनखाँ पठान के यह चला गया। जीवनखाँ यह समझता रहा कि दारा के साथ बहुत बड़ी सेना आती होगी। यही समझकर उसने उसके साथ बड़े सम्मान का बर्ताव किया, उसके साथी सिपाहियों को सादर स्थान दिया, और उनके आराम के प्रबन्ध कर देने की अपने आदमियों को आज्ञा दी, परन्तु जब उसे मालूम हो गया कि दारा के साथ दो-तीन-सौ आदमियों से अधिक नहीं हैं, तब तुरन्त ही उसके भाव बदल गये। यह पता ही नहीं लगता कि औरङ्गजेब के कहने से अथवा स्वयं अपनी इच्छा से उसने ऐसा विश्वासघात किया, पर जान पड़ता है कि अशर्फियों के लदे हुए उन कई खच्चरों को देखकर उसे लालच आगया। उसने एक रात को बहुत से लड़ने-भिड़ने वाले आदमी इकट्ठा करके पहले तो दारा के सब रुपये-पैसे और स्त्रियों के आभूषण छीनकर अपने अधिकार में कर लिये, पीछे दारा शिकोह और सिफ़र शिकोह पर आक्रमण किया, और जिन लोगों ने उनको बचाना
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