पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/१४५

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- हुआ? यह और भी आश्चर्य की बात है कि बचाव के लिये कुछ सेना भी साथ में नहीं भेजी गई थी ; विशेषकर ऐसी अवस्था में जबकि औरङ्गजेब के अनुचित काम देखकर सब लोग कुछ दिनों से उससे रुष्ट हो रहे थे। "इस अविचार का तमाशा देखने को बड़ी भीड़ जमा थी। स्थान- स्थान पर खड़े होकर लोग दारा के दुर्भाग्य पर हाथ मल रहे थे। मैं भी नगर के सबसे बड़े बाज़ार में एक अच्छे स्थान पर अपने दो मित्रों तथा सेवकों के साथ बढ़िया घोड़े पर चढ़ा खड़ा था। सब ओर से रोने-चिल्लाने के शब्द सुन पड़ते थे। स्त्री, पुरुष और बच्चे इस प्रकार चिल्लाते थे, मानों उन पर बहुत ही भयानक विपत्ति पड़ी हो । दुष्ट जीवनखाँ घोड़े पर दारा के साथ था। चारों ओर से उस पर गालियों की बौछार पड़ रही थी ; बल्कि कई एक फकीरों और ग़रीब आदमियों ने उस पाजी पठान पर पत्थर भी फेंके। परन्तु राजकुमार के छुड़ाने का साहस किसी को न । हुआ। "जब सवारी देहली के नगर में सर्वत्र घूम चुकी, तब अभागा कैदी अपने आप ही एक बाग़ में, जिसका नाम हैदराबाद था कैद कर दिया गया। परन्तु उसके नगर में घुमाये जाने का सर्व-साधारण पर कैसा बुरा असर पड़ा, लोग जीवनखाँ पर कैसे क्रुद्ध हुए, किस प्रकार पत्थर मार-मार- कर कुछ लोगों ने उसे मार डालना चाहा, और किस रीति से विद्रोह मच जाने के लक्षण दिखाई दिये, यह सब औरङ्गजेब ने शीघ्र सुन लिया । एक सभा की गयी-और राय ली गयी कि पहले सोचे हुए उपाय के अनुसार, कैदी को ग्वालियर भेज देना चाहिये या वध कर डालना चाहिये । इस पर किसी-किसी की तो यह सम्मति हुई कि वध कर डालने की इस समय कुछ विशेष आवश्यकता नहीं है । यदि पहरे और रक्षा का यथेष्ट प्रबन्ध हो सके तो उसे ग्वालियर भेज दिया जाय। दानिशमन्दखाँ ने भी यही सलाह दी कि वह ग्वालियर भेजा जाय। परन्तु अन्त में अधिक लोगों की राय से यही निश्चित हुआ कि उसका वध किया जाय और उसके पुत्र सिफर शिकोह को ग्वालियर भेज दिया जाय । इस अवसर पर रोशनआरा बेगम ने भी अपना हार्दिक वैर अच्छी तरह प्रकट किया। वह बराबर दानिशमन्दखाँ की राय को रोकती, और औरङ्गजेब को यह अमानुषिक कार्य करने के लिये -