1 १३७ उभारती रही। खलीलुल्लाखाँ और शाइस्ताखाँ भी, जो दारा के पुराने शत्रु थे, इसी बात पर विशेष जोर देते थे और तकरु वखाँ नामक ईरानी ने भी, जिसका नाम पहले हकीम दाऊद था, जो किसी कारण विशेष से भारतवर्ष में भागकर चला आया था, जो बड़ा खुशामदी था, और अभी थोड़े दिनों में साधारण अवस्था से उच्च अवस्था को प्राप्त हुआ था, इन दोनों का विकट पक्षपात किया। उसने इन सब से बढ़कर कड़ी बातें कहीं और कठोर शब्दों में कड़ककर कहा कि-'दारा शिकोह को ज़िन्दा छोड़ना हरगिज़ मुनासिब नहीं है। सल्तनत की सलामती और हिफ़ाज़त इसी में है कि फौरन उसकी गर्दन मारी जाये। मुझे तो उसके क़त्ल की सलाह देने में ज़रा भी ताम्मुल नहीं होता, क्योंकि वह बेदीन और काफ़िर है। और अगर ऐसे शख्श के क़त्ल से कुछ गुनाह आयद होता हो तो वह मेरी गर्दन पर हो।' ईश्वरेच्छा देखिये कि जैसा उसके मुंह से निकाला था, हुआ भी वैसा ही, अर्थात् इस अविचार के रक्तपात का फल उसी को मिला ; बहुत शीघ्र बहुत दुर्दशा के साथ मारा गया । “निदान, इस अन्याय और निर्दयतापूर्ण रक्तपात के लिये नज़ीर नामक एक गुलाम, जो शाहजहाँ के यहाँ पला था और किसी कारण से दारा से असन्तुष्ट था, चुना गया। एक दिन विष खिलाये जाने के भय से दारा और सिफ़र शिकोह बैठे अपने हाथ से दाल बना रहे थे, कि सहसा नज़ीरखाँ चार दूसरे दुष्टों को लिये हुए उन दोनों के निकट जा पहुँचा । उसे देखते ही दारा ने सिफ़र शिकोह से कहा कि 'लो बेटा, हमारे क़ातिल आ गये।' यह कहकर उसने रसोई घर की एक छोटी छुरी उठा ली, क्योंकि वहाँ और कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं था; परन्तु उन बधिकों में से एक ने तो सिफ़र शिकोह को पकड़ लिया और शेष सब उस पर टूट पड़े। उन्होंने उसको भूमि पर पटक दिया और नज़ीर उसका सिर काटकर तुरन्त औरङ्ग- जेब के पास ले गया। "औरङ्गजेब ने वह कटा हुआ सिर एक बर्तन में रखकर उसके मुख पर का रक्त धुलवाया । जब उसे निश्चय हो गया कि यह दारा ही का सिर है, तब उसके आँसू निकल पड़े और बार "ऐ बदबख्त !" कहकर वह बोला-'अच्छा, इस दर्दङ्गेज सूरत को मेरे सामने से ले जाकर हुमायूँ के
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