१४६ - अपने पक्ष में कर लिया। यहाँ तक कि एक दिन उसने रात को राजा जयसिंह के पास जाकर बहुत-कुछ खशामद-दरामद की। इधर रोशनआरा बेगम ने भी बहुत-से अमीरों को मिला लिया, जिनमें तोपखाने का प्रधान अधिकारी फ़िदाअली मीर आतिश भी था। उसकी चेष्टा अकबर को गद्दी पर बैठाने की थी, जिसकी अवस्था सात आठ वर्ष ही की थी। पर सब लोग जानते थे कि शाहजहाँ को कैद से बाहर निकालना क्रुद्ध शेर को बाहर निकालना है । सब दरबारी उसके छूटने की चिन्ता से घबरा रहे थे। सबसे अधिक भय एतबारखाँ को था, जो अकारण कैदी बादशाह से निर्दयता का व्यवहार करता था। औरङ्गजेब बीमारी की हालत में भी इधर से बेखबर नहीं था। होश में आते ही वह शहज़ादा मुअज्जम को कहता कि यदि मैं मर जाऊँ तो बादशाह को कैद से छुड़ा लेना, पर एतबारखाँ को बार-बार लिखता था कि खबरदार, अपने काम में मुस्तैद रहना । बीमारी के पाँचवें दिन बादशाह ने साहस करके कहा-"हमको दर्बार ले चलो।" इसका अभिप्राय यह था कि उसके मरने की जो अफ़वाह फैली हुई है, वह मिट जाय । इस प्रकार वह उसी दशा में, सातवें, नवें और दसवें दिन भी दरबार में गया, और कुछ बड़े-बड़े अमीरों को पास बुला भेजा। इसके बाद वह स्वस्थ होने लगा। स्वस्थ होने पर उसने दारा की पुत्री को शाहजहाँ के यहाँ से मँगाकर अपने बेटे अकबर से उसकी शादी करने की इच्छा प्रकट की, पर शाहजहाँ और शहजादी ने घृणापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। आरोग्य-लाभ होने पर हकीमों ने उसे जलवायु बदलने काश्मीर जाने की सलाह दी। पर वह डरता था कि कहीं बुड्ढा शाहजहाँ फिर गद्दी पर न बैठ जाय। उसने कैद की सख्तियाँ बढ़ा दीं। उसने वह खिड़की भी बन्द करवा दी, जो जमना की तरफ़ थी और जिसमें शाहजहाँ बाहर का नज़ारा देखता और हवा खाता था। उसने खिड़की के नीचे बन्दूकची नियत कर दिये थे कि यदि शाहजहाँ उधर को झुके तो गोली मार दें। यहाँ का सब सामान भी उठा लिया गया। पर शाहजहाँ चुपचाप सब सह गया । वह खूब नाच-रंग और गाने-बजाने में मस्त रहने का ढोंग करने लगा। औरङ्गजेब ने यह सुनकर उसे जहर देने का इरादा किया और मुकरमखाँ
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