१५० को इस काम के लिये लिखा, जो शाहजहाँ का हकीम और भक्त था। उसे बादशाह ने लिख दिया कि जो चीज़ ख्वाजासरा फ़हीम आपको देगा, वह शाहजहाँ को खिला दें, वरना ज़िन्दगी से हाथ धो लीजिये । उसने जवाब दिया-बादशाह ने जो हुक्म दिया है, मैं उससे ज्यादा अच्छा काम करूंगा। मेरे लिये यह उचित नहीं कि जिसने विश्वास करके अपना शरीर मुझे सुपुर्द किया है, उसीसे दग़ा करूं। यह सोच, उसने स्वयं जहर खा लिया ; और मर गया । औरङ्गजेब ने यह सुना तो लज्जित हुआ, और बादशाह को मारने के दूसरे उपाय सोचने लगा। पर गर्मी निकट आगई थी, और उसे काश्मीर जाना जरूरी था। अन्त में बादशाह ने काश्मीर की यात्रा की। इस यात्रा में दो लाख आदमी उसके साथ थे। पाठक इस यात्रा के व्यय का अनुमान कर सकते हैं । दो वर्ष में बादशाह इस यात्रा से लौटा। परन्तु एक दिन के लिये भी बादशाह के नित्य-नियमित दरबार आदि में अन्तर नहीं आया। आठ वर्ष कैद में रहकर शाहजहाँ की मृत्यु हुई। पिता के मरने का ढोंगी औरंगजेब ने बड़ा शोक किया। वह तुरन्त आगरे आया। वहाँ पहुँ- चने पर उसकी बहन जहाँआरा ने उसका बड़ी धूम-धाम से स्वागत किया। कमख्वाब के थान लटकाकर बादशाही मस्जिद सजाई गई और इसी प्रकार वह मकान भी, जहाँ औरङ्गजेब का इरादा ठहरने का था। औरङ्ग- जेब महल में पहुँचा तो शाहजादी ने एक बड़ा-सा सोने का थाल जवाह- रात से भर कर बादशाह की नजर किया। उसका यह सत्कार देखकर औरङ्गजेब का मन भी पसीज गया और उसने बहन की सब पुरानी बातें भुलादी, और कृपा तथा उदारता का व्यवहार उसके साथ किया । शाहजहाँ के मरते ही उसने जेहाद की तलवार उठाई। सर्वप्रथम उसने सब हिन्दू अफ़सरों को पदच्युत कर दिया, जिससे प्रबन्ध में एक अन्धेरगर्दी मच गई। इसके बाद उसने काशी पहुँचकर पण्डितों को हुक्म दिया कि वे सब प्रकार का पठन-पाठन बन्द करदें। इसके बाद उसने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध मन्दिरों को ढहा कर उनके स्थानों पर मस्जिदें बनादीं। मथुरा में जाकर उसने सब बड़े-बड़े मन्दिर ढहा दिये, हजारों मनुष्य क़त्ल करा दिये। उसने फिर सभी प्रान्तों के हाकिमों को फ़र्मान भेज दिये कि सब
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