१५३ इस प्रकार समस्त हिन्दू-सरदार बेदखल हो गये थे। इन सब कारणों से इस बादशाह के समय में हिन्दुस्तान में तीन प्रबल विजयिनी हिन्दू- शक्तियाँ उदय हो गईं। दक्षिण में मराठे, जिनका नायक शिवाजी था, पच्छिम में सिक्ख, जिसके नायक गुरु गोविंदसिंह थे, और राजपूताने में राजपूत, जिनके नायक मेवाड़ के अधिपति थे। जिस समय औरङ्गजेब तख्त पर बैठा, उस समय मुग़ल-साम्राज्य का आदि-अन्त न था । यदि यह कहें कि उस समय संसार भर में ऐसा प्रबल साम्राज्य न था, तो अत्युक्ति नहीं। पर यह साम्राज्य औरङ्गजेब के पूर्वजों ने हिन्दू राजाओं के सहयोग से और हिन्दू प्रजा को प्रसन्न करके संगठित किया था। वे जानते थे कि कोई भी जाति बल या घृणा से कभी क़ब्जे में नहीं आ सकती । औरङ्गजेब के पूर्वजों ने पठानों की सैकड़ों वर्ष की विफल और अथक चेष्टा का परिणाम देख लिया था और वे समझ गये थे कि साम्राज्य की स्थापना में प्रजा का कितना हाथ रहना आवश्यक है । औरङ्ग- जेब एक तत्पर, तीव्र-बुद्धि, चौकन्ना और भयानक परिश्रमी बादशाह था। किसी खुशामदी का उसके सामने मुंह खोलने का साहस न होता था। उसने शुरू से ही इस्लाम की आड़ लेने की नीति पर काम किया था। यदि वह ऐसा न करता तो जो कुकर्म उसने राज्य-प्राप्ति के लिये किये उनमें वह सफल न होता। पर इस सफलता का कुछ भी महत्व न रहा, क्योंकि, उसके राज्य के स्तम्भ-वे राजपूत और हिन्दू शीघ्र ही उसके विरोधी हो गये, और उन्हीं ने स्वतन्त्र शक्ति का संगठन करना प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि भारतीय तेज मर गया था, वीरत्व सो गया था और समाज पराधीनता की कीचड़ में डूबा पड़ा था ; पृथ्वीराज की-सी अजेय सत्ता नहीं रही थी, समरसिंह से जूझ मरने वाले मर चुके थे, प्रताप-जैसे नर-केशरी भी समाप्त हो चुके थे ; परन्तु अवसर ने फिर वीरत्व को उदय किया। शिवाजी दक्षिण में एक अवतार होकर जन्मे । वे एक वीर, साहसी, निष्ठावान और प्रकृत-योद्धा थे । सोलह वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने कुछ मित्रों को संग ले, घोड़े पर सवार हो, आस-पास के गाँवों को लूटना आरम्भ कर दिया । ये गाँव बीजापुर के शाह के थे। शाह ने अफ़जलखाँ को भेजा। 1
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