पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/१६९

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१६० स्मरण करते हैं। यदि हम उस चित्र को बिगाड़ें, तो चितेरे को अप्रसन्नता होगी, और कवि की उक्ति के अनुसार जब कोई फूल सूघते हैं, तो उसके बनानेवाले को ध्यान करते हैं, उसको बिगाड़ना उचित नहीं समझते । सारांश यह कि हिन्दुओं पर आपने जो कर लगाना चाहा है, वह न्याय के परम विरुद्ध है-राज्य के प्रबन्ध को नाश करने वाला है। ऐसा करना अच्छे राज्याधीश्वरों का लक्षण नहीं है, और बल को शिथिल करने वाला है, हिन्दुस्तान की नीति के अति विरुद्ध है। यदि आपको अपने मत का ऐसा आग्रह हो कि आप इस बात से बाज न आयेंगे, तो पहिले राजसिंह से, जो हिन्दुओं में मुख्य हैं, यह कर लीजिये और फिर इस शुभ- चिन्तक को बुलाइये। किन्तु यों प्रजा-पीड़न करना वीर-धर्म और उदार- चित्त के विरुद्ध है। बड़े आश्चर्य की बात है कि आपके मंत्रियों ने आपको ऐसे हानिकारक विषय में कोई उत्तम मंत्र नहीं दिया।" टॉड राजस्थान, ४४७-४४८, प्रथम खण्ड पत्र पढ़कर बादशाह तिलमिला उठा। उसने राजपूत की इस दुर्घर्ष शक्ति को कुचलने की भारी तैयारी प्रारम्भ कर दी। बंगाल से अपने पुत्र अकबर को, काबुल से अजीम को, दक्षिण से दिलेरखाँ को बुलवाया और शाही सैन्य लेकर उसने मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी। यह सुन, राणा अपने समस्त योद्धाओं और नागरिकों को लेकर दुर्गम पर्वत-उपत्यकाओं में चले गये । देश-भर उजाड़ कर दिया गया। औरङ्गजेब चित्तौर, मंगलगढ़, मन्दसौर, जीरन और अन्य क़िलों को अनायास ही अधि- कृत करता हुआ, बढ़ा चला गया। राणा ने अपनी सेना को तीन भागों में बाँटा। एक भाग का अधि- पति राणा का ज्येष्ठ पुत्र जयसिंह अरावली की दूसरी चोटी पर स्थित किया गया, जिसमें वह दोनों ओर से आनेवाले शत्रुओं की खबर रखे। राजकुमार भीम पश्चिम की ओर नियुक्त किया, जिससे वह गुजरात से आनेवाले शत्रु को रोके । राणा स्वयं नाहन की घाटी पर जाकर बैठे, और इस ताक में लगे कि शत्रु पहाड़ी में घुसें तो उनके लौटने का मार्ग रोक दिया जाय। -