भारत के ढंग का और शाम देशीय देवालयों से मिलता-जुलता चौकोर खुली छत का भवन है। मुहम्मद की आज्ञा थी कि मक्का पहुँचते ही सब मूर्तियाँ तोड़ डाली जाय। उस समय अबूसुफियान मक्के का सरदार था जिसने प्राणभय से कल्मा पढ़ लिया। जब वह नगर के निकट पहुँचा तब उसने यह शब्द कहे---"हे ईश्वर! मैं यहाँ तेरी सेवा के लिए हाज़िर हूँ। तेरे बराबर कोई दूसरा नहीं, केवल तू ही पूजने योग्य है। केवल तू ही सबका राजा है; उसमें तेरा कोई साझी नहीं।"
अपने हाथों से उसने ऊँटों का बलिदान किया, और मूर्तियों को छिन्न- भिन्न कर दिया। क़ाबा के व्याख्यान-पीठ से उच्च स्वर से कहा---"श्रोतागण, मैं केवल तुम्हारे समान एक मनुष्य हूँ।" एक मनुष्य से, जो डरते-डरते उसके पास आया, कहा---"तुम किस बात से डरते हो, मैं कोई अलौकिक नहीं हूँ। मैं एक अरब-निवासी स्त्री का पुत्र हूँ, जो धूप में सुखाया हुआ मांस खाती थी।"
मक्का और काबे के मन्दिर को अधिकार में कर लेने पर अरब की बहुत सी जातियाँ मुहम्मद साहब के धर्म में मिल गईं। परन्तु कुछ कबीले अभी ऐसे थे जिन्होंने इस्लाम को अभी स्वीकार नहीं किया था। यह क़बीले बनी, हवाज़िन, सतीफ़, जसर और साद वंश के थे। कुछ पहाड़ी जातियाँ भी इनके साथ मिल गई थीं। एक बार इनसे मुहम्मद साहब ने युद्ध कर इन्हें परास्त किया, यह हतीम का युद्ध प्रसिद्ध है, इसमें मुहम्मद साहब के साथ १२०० सवार थे। इस युद्ध में एक अद्भुत घटना घटी थी---जब लूट का माल इकट्ठा हो रहा था तब एक डोली जाती हुई देखी गई। रविया इब्नेरकी ने उसके पीछे घोड़ा दौड़ाया। निकट जाकर देखा तो एक बुड्ढा बैठा था। रविया ने जाते ही बुड्ढे पर वार किया। पर उसकी तलवार टूट गई। बुड्ढे ने हँसकर कहा--'बेटे, अफ़सोस है तेरे माँ-बाप ने तुझे अच्छी तलवार नहीं दी। जा मेरी काठी में तलवार लटक रही है उसे ले आ और अपना काम कर।' रविया ने तलवार निकाल ली और वार करने लगा। बुड्ढ ने कहा---'अपनी माँ से यह ज़रूर कह देना कि मैं दुरैव इब्ने सुम्मा को मार आया हूँ।' रविया ने कहा---'अच्छा कह दूँगा।' इसके बाद वह उसका सिर काटकर घर गया और माँ से उक्त समाचार कहा। माँ ने कहा---'अरे दुष्ट जिसे तूने मारा है उसने तीन बार मेरी और तेरी दादी की इज्जत बचाई थी।' रविया ने मुँह फेरकर कहा---'इस्लाम काफ़िर के अहसान और गुण नहीं मानता।'