१७७ । वस्त्रों को साड़ी और मलमल कहते हैं। यह एक या दो या तीन कपड़े पहनती हैं, जिनका वज़न अधिक से अधिक आधी छटाँक होता है। परन्तु मूल्य उनका ४०) से ५०) रुपया तक होता है। स्मरण रहे, इसमें उस सुन- हरी किनारी का मूल्य शरीक नहीं है, जो वे उनमें लगाती हैं । ये स्त्रियाँ इन्हीं वस्त्रों में सोती और चौबीस घण्टे बाद इन्हें बदल डालती हैं, जिसके बाद फिर इन्हें नहीं पहनतीं, बल्कि अपनी बाँदियों को दे डालती हैं। “इनके बाल सदा अच्छी तरह गुधे रहते हैं और सुगन्धित तेलों से तर रहते हैं । सर पर वे भिन्न-भिन्न प्रकार और रंगों के दुपट्ट पहनती हैं, जो जरबफ्त के होते हैं। सर्दी की ऋतु में भी, जब यहाँ गर्मी कम होती हैं क्योंकि बर्फ जमना तो यहाँ होता ही नहीं-ये यही वस्त्र पहनती हैं, परन्तु ऊपरी वस्त्र के ऊपर काश्मीर की बनी हुई एक ओढ़नी, जो लम्बा-सा खुला चोगा होता है, पहन लेती हैं, और दूसरे वस्त्रों के ऊपर अत्यन्त सुन्दर शाल ओढ़ लेती हैं, जो इतना बारीक होता है कि छोटी अँगूठी से निकाला जा सकता है। रात के समय बहुधा इनका यह विनोद होता है कि बड़ी-बड़ी भारी मशालें जलवादें, जिन पर वे डेढ़ लाख से ज्यादा रुपया खर्च कर देती हैं। ये मशालें, तेल या मोम की होती हैं। इन शहज़ादियों में से कोई-कोई बादशाह की आज्ञा से सिर पर पगड़ी बाँधती हैं, जो कि मोतियों और बहुमूल्य जवाहरातों से जड़ी होती हैं, और इनके सौन्दर्य को चौगुना कर देती हैं। नाच रंग आदि में तवायफ़ों को भी यही हक़ प्राप्त होता है । इन बेगमों और शाहजादियों को अपने-अपने रुतबे या खानदान के अनुसार वेतन मिलता है, जो 'याहान' कहाता है। इसके सिवा वे बहुधा बादशाह के पास से सुगन्ध, वस्त्र और जूते आदि खरी- दने के बहाने से खास भेट नक़द रुपये की सूरत में भी प्राप्त करती हैं। इस तरह पर वे बेगम अत्यन्त ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करती हैं, और इनका काम सिवाय इसके और कुछ नहीं होता कि अपना साज शृगार करती रहें, और शान-शौक़त दिखावें, दुनिया में इनकी प्रसिद्धि हो, और वह बादशाह को प्रसन्न करने में सफल हों। यद्यपि इनमें परस्पर बहुत ही विद्वष होता है, परन्तु ऊपर से वे इसे प्रकट नहीं होने देतीं। इतने निठल्लेपन, मस्ती और ठाठ-बाट में यह असभ्भव है कि इनके मन में बुराइयाँ उत्पन्न न होती हों;
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