। - २२० शरबत लुटियों में घोल-घोलकर पिलाने लगे। दिल्ली का अंग्रेज़ी दूतावास लूटकर जला दिया गया। अन्य अंग्रेज़ी इमारतें भी तहस-नहस कर दी गईं। दिल्ली के मेगजीन में ६ लाख कारतूस, १० हजार बन्दूक तथा बहुत-सा गोला-बारूद था । मेगजीन में ६ अँग्रज और कुछ हिन्दुस्तानी सिपाही थे । हिन्दुस्तानियों ने जब क़िले पर हरा और सुनहरा झण्डा फहराते देखा, तब वे भी उनमें मिल गये । नौ अंग्रेजों ने मेगजीन का बचना असम्भव देख- कर उसमें आग लगादी । उसके धड़ाके से तमाम दिल्ली हिल गई। ६ अँग्रज, २५ हिन्दुस्तानी सिपाही, और ३०० आदमी इधर-उधर गली में टुकड़े-टुकड़े हो गये । बन्दूकें विद्रोहियों के हाथ आईं । प्रत्येक सिपाही को ४-४ बन्दूकें मिलीं। शीघ्र ही यह विद्रोह की आग दूर-दूर तक फैल गई। बहुत से अंग- रेज मारे-काटे और लूट लिये गये। लॉर्ड केनिंग ने एक भारी सेना जनरल नील की आधीनता में विद्रोह- दमन को भेजी । यह सेना जिधर से गुज़री, रास्ते-भर बिना विचारे क़त्ले- आम करती, गाँवों को लूटती, और फूकती बढ़ी चली आई। इस समय का वर्णन सर जॉन ने इस प्रकार किया है-- "फौजी और सिविल दोनों अदालतें बिना किसी तरह के मुक़दमे का ढोंग रचे, और बिना मर्द-औरत या छोटे-बड़े का विचार किये-भारत- वासियों का संहार कर रही थीं। "बूढ़ी औरतों और बच्चों का उसी तरह वध किया, जिस प्रकार विद्रोहियों का। उन्हें 'सोच-समझकर फाँसी नहीं दी गई, बल्कि उन्हें उनके गांवों में अन्दर जलाकर मार डाला गया, गोली से उड़ा दिया गया। सड़कों के चौरस्तों पर, बाजारों में जो लाशें टॅगी हुई थीं, उनको उतारने में प्रातःकाल से संध्या तक मुरदे ढोने-वाली आठ-आठ गाड़ियाँ बराबर तीन महीने तक लगी रहीं।" जनरल नील भयानक मार-काट करता हुआ इलाहाबाद तक बढ़ा चला गया। इलाहाबाद का क़िला अब भी सिक्खों की बदौलत अँगरेज़ी अधिकार में था। वहाँ के विद्रोही नेता मौलवी लियाक़तअली ने डटकर -युद्ध किया । अन्त में तीस लाख रुपये का खजाना लेकर कानपुर को भाग आया । इलाहाबाद में भयानक क़त्ले आम भौर अग्नि-काण्ड करके वह सेना
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