२२६ 1 नवाब को इमारतों का भी बड़ा शौक़ था। १० लाख रुपये के लग- भग आप इमारतों पर भी खर्च किया करते थे। इनकी बनाई इमारतें आज भी लखनऊ की रोशनी हैं। दौलतगंज या दौलतखाना जहाँ नवाब स्वयं रहते थे-इन्द्र-भवन के समान शोभा रखता था। यह वह समय था, जब ईस्ट-इण्डिया कम्पनी की कौंसिल मैं वारेन हेस्टिग्स का दौर-दौरा था, और मुग़ल-तख्त शाह आलम के पैरों के नीचे डगमगा रहा था। हम कह आये हैं, कि लखनऊ में भी कम्पनी का एक रेजीडेण्ट रहता था। उस समय तक रेजीडेण्टों को नवाब के सामने आने पर दरबार के नियमों का पालन करना पड़ता था, और अन्य दरबारियों की भाँति उन्हें भी अदब के साथ नवाब से मिलना पड़ता था। नवाब ने रेजीडेण्ट के रहने के लिये एक विशाल इमारत बनवाई थी, जो १८५७ की घटनाओं के कारण अब बहुत प्रसिद्ध होगई है। एक बार नवाब घोड़े पर सवार सैर को निकले, तो एक चूहा आप के घोड़े की टाप के नीचे दब गया। इस पर आपने वहीं उसकी कब्र बनवा दी, और एक बाग़ लगवाया, जो 'मूसा बाग' के नाम से प्रसिद्ध है । यह बाग़ नवाब को बहुत प्रिय था। इसी में बादशाह जानवरों की लड़ाई देखा करते थे। इनके बाद इनके तीसरे पुत्र मिरज़ा अनजीअलीखाँ आसफ़उद्दौला के नाम से गद्दी पर बैठे। ये प्रारम्भ में ७ वर्ष तक फ़ैज़ाबाद में रहे। परन्तु बाद में लखनऊ चले आये, और उसे हो राजधानी बनाया। इनके लखनऊ आने से लखनऊ की तक़दीर चेती। उस समय तक लखनऊ एक साधारण क़स्बा था। आसफ़उद्दौला ने उसे अच्छा खासा शहर बना दिया। उन्होंने कई मुहल्ले और बाजार बनवाये। ये बड़े शाह- खर्च, स्वाधीन प्रकृति के, और हिम्मतवाले शासक थे। इन्होंने सब पुराने दरबारियों को निकालकर नयों को नियुक्त किया। इनके जमाने में दर- बार की शानो-शौक़त देखने योग्य थी। दाता तो अनोखे थे। इनकी शाह- खर्ची से इनकी माँ ने अँगरेजों से कह-सुनकर खजाना अपने अधिकार में कर लिया था, परन्तु नवाब ने लड़-भिड़कर ६२ लाख रुपये ले लिये । होली, दिवाली, ईद, मुहर्रम के अवसरों पर लाखों रुपये स्वाहा हो जाते थे ।ब्याह- -
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