1 २४६ नशीन होने पर नियमानुसार अंग्रेजों ने उसे भेंट नहीं दी थी; इसका अर्थ यह था कि वे उसे नवाब न स्वीकार करते थे। वे प्रायः सिराजुद्दौला से सीधा सम्बन्ध भी नहीं रखते थे; आवश्यकता पड़ने पर अपना काम ऊपर- ही ऊपर निकाल लेते थे। धीरे-धीरे नवाब और अंग्रेजों का मन-मुटाव बढ़ता गया । अंग्रेजों ने जो क़ासिम बाजार में क़िलेबन्दी करली थी, नवाब उसका अत्यन्त विरोधी था । उसने वहाँ के मुखिया को बुलाकर समझाया-"यदि अंग्रेज शान्त व्यापारियों की भाँति देश में रहना चाहते हों तो खुशी से रहें। किन्तु सूबे के हाकिम की हैसीयत से मेरा यह हुक्म है कि वे उन सब क़िलों को फ़ौरन तुड़वाकर बराबर करदें, जो उन्होंने हाल ही में बिना मेरी आज्ञा के बना लिये हैं।" परन्तु इसका कुछ भी फल न हुआ। अन्त में नवाब ने क़ासिम बाजार में सेना भेजने की आज्ञा देदी। अचानक कासिम बाजार में नवाबी सिपाही दीख पड़ने लगे । होते-होते और भी सैकड़ों सवार और बरकन्दाज़ आ-आकर शामिल होने लगे। सन्ध्या के प्रथम ही दो लड़ाके हाथी झूमते- झामते क़ासिम बाजार में आ पहुँचे। यह कैफियत देखकर, अंग्रेजों के प्राण काँपने लगे। राजदूत का अपमान करने की बात सबको मालूम थी। एक-एक करके अँग्रज कोठीवाले भागने लगे। महामति हेस्टिग्स भागकर अपने दीवान कान्ता बाबू के घर में छिप गये। सबने समझ लिया, रात्रि के अन्धकार के बढ़ने की देर है, बस नवाब की सेना बलपूर्वक किले में घुसकर अंग्रेजों के माल-असबाब का सत्यानाश कर, लूट-पाट मचा देगी। क़िले में जो नौकर तथा गोरे-काले सिपाही थे, वे तैयार होकर दर- वाजे पर आ डटे । परन्तु बुद्धिमान नवाब ने आक्रमण नहीं किया । उसका मतलब खून बहाने का न था। वह केवल उनकी राजनीति के विरुद्ध, किले बनाने की कार्यवाही का विरोध करने और अपनी आज्ञा के निरादर का दण्ड देने आया था। सोमवार, मंगल, बुध, वृहस्पतिवार भी बीत गया। नवाब की अग- णित सेना क़िला घेरे खड़ी रही । पर आक्रमण नहीं किया । उस क्षुद्र किले को राख का ढेर बनाना क्षण-भर का काम था। इस चुप्पी से अंग्रेज बड़े
पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२५५
दिखावट