पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२५६

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२४७ चकित हुए; घबराये भी। न मालूम नवाब का क्या इरादा है ! अन्त में साहस करके डॉ० फोर्थ साहब को दूत बनाकर नवाब की सेवा में भेजा। उमरबेग ने डॉक्टर को समझा दिया-“घबराओ मत, नवाब का इरादा खून-खराबी का नहीं है। आपके सरदार वाट्स साहब को नवाब के दरबार में एक मुचलका लिख देना होगा और उसे वे यदि राज़ी से न लिखेंगे, तो ज़बर्दस्ती लिखाया जायगा। सिर्फ़ इतनी सेना इसीलिये यहाँ आई है।" पर वाट्स साहब को आत्म-समर्पण करने का साहस नहीं हुआ। उन्होंने अत्यन्त नम्रतापूर्ण लिख भेजा- "नवाब साहब का अभिप्राय ज्ञात हो जाने-भर की देर है । पश्चात् जो उनकी आज्ञा होगी-अंगरेज़ों को वह स्वीकार होगा।" इस पत्र का नवाब के दरबार से यही उत्तर मिला-"किले की चाहरदीवारी गिरा दो-बस, यही नवाब का एकमात्र अभिप्राय है।" अंगरेजों ने बड़े शिष्टाचार और नम्रता से कहला भेजा कि-नवाब का जो हुक्म होगा, वही किया जायगा। परन्तु वे अपनी अभ्यस्त रिश्वत और खुशामद के ज़ोर से मतलब निकालने की चेष्टा करने लगे। उन्होंने अमीर-उमरावों को इसी बल पर अपने वश में कर लिया। पर, वास्तव में अंगरेज़ सिराजुद्दौला के स्वभाव और उद्देश्य को नहीं जानते थे। उन्होंने इस खटपट का यही मतलब समझा था कि रिश्वत और भेंट लेने के लिये यह नया जाल फैलाया गया है। काले लोगों को हीन समझने वाले इन बनियों के दिमाग में यह बात न आई कि सिराजुद्दौला युवक और ऐयाश है तो क्या है, वह देश का राजा है। विद्वान् सिराजुद्दौला, इन प्रलोभनों से जरा भी विचलित न हुआ । अन्त में वाट्स साहब हाथ में रूमाल बाँधकर दरबार में हाजिर हुए । नवाब ने उनको अंगरेज़ों के उद्दण्ड-व्यवहार के लिये बहुत लानत-मला- मत की। वाट्स बेचारे हवा में बेंत की तरह काँपते-थरथराते खड़े रहे। लोगों को भय था कि नवाब इन्हें कहीं कुत्तों से न नुचवा दे । परन्तु, उसने क्रोधित होने पर भी, कर्तव्य का ख्याल किया। उसने साहब को अपने डेरे -