पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२६९

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२६० अपने प्राण बचाना चाहो, तो हम उसमें बाधा नहीं देंगे। बल्कि तुम्हारे लिये सुव्यवस्था कर देंगे, जिससे तुम्हें अन्न-वस्त्र का कष्ट न हो। बस, देर मत करना, पत्र को पढ़ते ही राजधानी छोड़कर भाग जाओ। परन्तु- खबरदार ! खज़ाने के एक पैसे में भी हाथ न लगाना। जितनी जल्दी हो सके, पत्र का जवाब लिखो ! अब समय नहीं है । घोड़े पर जीन कसा हुआ है, पाँव रक़ाब में डाल चुका हूँ। केवल तुम्हारे जवाब की देर है।" इस पत्र से ही प्रमाणित होता है कि शौक़त किस योग्यता का आदमी था । नवाब ने यह पत्र उमरावों को पढ़ सुनाया । उसे आशा थी, सब कूच की सलाह देंगे, और बाग़ी, गुस्ताख शौक़त को सब बुरा कहेंगे। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। मंत्री से लेकर दरबारियों तक ने विषय छिड़ते ही वाद- विवाद उठाया । जगतसेठ ने प्रतिनिधि बनकर साफ़ कह दिया-"जब आपके पास बादशाह की सनद नहीं है-शौक़तजंग ने उसे प्राप्त कर लिया है, ऐसी दशा में कौन नवाब है-इसका कुछ निर्णय नहीं हो सकता।" नवाब ने देखा, विद्रोह ने टेढ़े मार्ग का अवलम्बन किया है। उसने गुस्से में आकर जगतसेठ को क़द कर लिया और दरबार बरखास्त कर दिया। फिर फ़ौरन आक्रमण करने को पुनिया की ओर कूच कर दिया। शौक़तजंग मूर्ख, घमण्डी और निकम्मा नौजवान था। वह किसी की राय न मान, स्वयं ही सिपहसालार बन गया। इससे प्रथम उसने युद्ध- क्षेत्र की कभी सूरत भी नहीं देखी थी। अनुभवी सेनापतियों ने सलाह देनी चाही, तो उसने अकड़कर जवाब दिया-"अजी मैंने इस उमर में ऐसी- ऐसी सौ फ़ौजों की फ़ौजकशी की है। सेनानायक बेचारे अभिवादन कर- करके लौटने लगे। परिणाम यह हुआ कि इस युद्ध में शौक़तजंग मारा गया । नवाब की विजय हुई। पुनिया का शासन-भार महाराज मोहनलाल को देकर और शौक़त की माँ को आदर के साथ संग लाकर नवाब राज- धानी में लौट आया, तथा शौक़त की माँ सिराज की माँ के साथ अन्तःपुर में रहने लगी। इस बीच में उसे अंगरेज़ों पर दृष्टि देने का अवकाशन मिला था। अतः उन्होंने घूस-रिश्वत दे-दिलाकर बहुत से सहायक बना लिये थे । जगतसेठ को - 1 -