२६१ - परन्तु अंग , - मेजर किलप्याट्रिक ने लिखा- "अंगरेजों को अब आपका-ही भरोसा है। वे क़तई आप पर-ही निर्भर हैं।" जो अंगरेज़ एक वर्ष पहले कलकत्त में टकसाल खोलकर जगतसेठ को चौपट करने के लिये बादशाह के दरबार में घूस के रुपयों की बौछार कर रहे थे, वे ही अब जगतसेठ के तलुए चाटने लगे । मानिकचन्द को घूस देकर पहले ही मिला लिया गया था। सबने मिलकर अंगरेज़ों को पुनः अधिकार देने के लिए नवाब से प्रार्थना की। नवाब राजी भी हुआ। इधर लल्लो-चप्पो कर रहे थे, उधर मद्रास से फौज़ मँगाने का प्रबन्ध कर रहे थे। नमकहराम मानिकचन्द ने नदी की ओर बहुत-सी तोपें सजा रखी थीं। पर सब दिखावा था, वे सब टूटी-फूटी थीं। क़िले में सिर्फ २०० सिपाही थे, और हुगली के क़िले में सिर्फ ५० । ये सब खबरें अंगरेज़ों को मिल रही थीं। क्लाइव और वाट्सन धीरे-धीरे कलकत्त की ओर बढ़े चले आ रहे थे। दोनों 'चोर-चोर मौसेरे भाई' थे । कुछ दिन पहले मालाबार के किनारे पर युद्ध-व्यापार में दोनों ने खूब लाभ उठाया। मराठों ने इन दोनों की सहायता से स्वर्ण-दुर्ग को चट कर डाला था, और इसके बदले इन्हें १५ लाख रुपये मिले थे। उड़ीसा के किनारे पहुँचकर एक दिन जहाज़ पर ही दोनों में इस बात का परामर्श हुआ कि यदि बंगाल को हमने लूट पाया, तो लूट में से किसे कितना हिस्सा मिलेगा। दोनों में बहुत वाद-विवाद के पीछे अद्धम-अद्धा तय हुआ। जिन्होंने इन दोनों को बंगाल भेजा था - उन्होंने सिर्फ बंगाल में वाणिज्य-स्थापना करने की हिदायत कर दी थी, और बिना रक्त-पात के यह काम हो, इसीलिये निज़ाम और सरकार के नवाब से सिफ़ारिशी चिट्ठियाँ भी सिराजुदौला के नाम लिखाई थीं। पर ये लोग तो रास्ते ही में लूट के माल का हिसाब लगा रहे थे। इधर पालता-बन्दर के अंगरेज़ों की विनीत प्रार्थना से नवाब उन्हें फिर से अधिकार देने को राजी होगया था। सब बखेड़ों का अन्त होने वाला था, कि एकाएक नवाब को खबर लगी, कि मद्रास से अंगरेज़ों के जहाज फौज़ और गोला-बारूद लेकर पालता-बन्दर आगये हैं । इस खबर के .
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