२७३ - इधर मीरजाफर से एक गुप्तसन्धि-पत्र लिखाकर १७ मई को कल- कत्त में उस पर विचार हुआ। इस सन्धि-पत्र में एक करोड़ रुपया कम्पनी को, दस लाख कलकत्त के अंगरेज़ों, अरमानी और बंगालियों को, तीस लाख अमीचन्द को देने का मीरजाफर ने वादा किया था। इसके सिवा बग़ावत के प्रधान सहायकों और पथ-प्रदर्शकों की रक़में अलग एक चिट्ठ में दर्ज की गई थीं। राज-कोष में इतना रुपया नहीं था। परन्तु रुपया है या नहीं? इस पर कौन विचार करता? चारों ओर ग़दर ही तो था ! मसौदा भेजते समय वाट्सन साहब ने लिखा- "अमीचन्द जो माँगता है, उसे वही मंजूर करना। वरना, सब भण्डाफोड़ हो जायगा।" पहले तो अमीचन्द को मार डालने की ही बात सोची गयी, पीछे क्लाइव ने युक्ति निकाली। उसने दो दस्तावेज लिखाये-एक असली दूसरा जाली लाल कागज पर ! इसी जाली पर अमीचन्द की रकम चढ़ाई गई थी। असली पर उसका कुछ जिक्र न था। वाट्सन ने इस जाली दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। पर, चतुर क्लाइव ने उसके भी जाली दस्तखत बना दिये। इसी दस्तावेज की जालसाजी के सम्बन्ध में हाउस ऑफ कॉमन्स में गवाही देते समय क्लाइव ने कहा था- "मैंने कभी इस बात को छिपाने की चेष्टा नहीं की। मेरे मत से ऐसे अवसरों पर जाल-झूठ के काम निकाला जा सकता है । मैं जरूरत पड़ने पर और सौ-बार ऐसा काम करने के लिये तैयार हूँ।" इन महापुरुष की तारीफ में मैकॉले ने लिखा है- "क्लाइव के घरवालों को उसके स्वभाव से कुछ आशा न थी। अतएव यह कोई आश्चर्य की बात न थी कि उन्होंने उसे दस वर्ष की आयु में कम्पनी की मुहरिरी से कुछ रुपया पैदा करने या मदरास में बुखार से मर जाने के लिये भारतवर्ष में भेज दिया।" मिल ने लिखा है-"धोखे से काम निकालने में क्लाइव को जरा भी सङ्कोच न होता था, और न वह इसमें जरा-से भी कष्ट का अनुभव करता।” यही दुर्दान्त अंगरेज़ युवक था, जिसने अंगरेजी साम्राज्य की नींव -
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