पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/३०५

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२१६ यद्यपि टीपू की कठिनाइयाँ असाधारण थीं, पर उसने वीरता और दृढ़ता से कई महीने लोहा लिया। अन्त में बंगलौर अंगरेज़ों के हाथ में आगया-टीपू को पीछे हटना पड़ा। अब कार्नवालिस ने मैसूर की राजधानी श्री रङ्गपट्टन पर चढ़ाई की। टीपू ने युद्ध किया, और सुलह की भी पूरी चेष्टा की। अंगरेजों ने लालबाग़ में हैदरअली की सुन्दर समाधि पर अधिकार कर लिया, और उसे लगभग नष्ट-भ्रष्ट कर दिया । अन्त में दोनों दलों में सन्धि हुई, और टीपू का आधा राज्य लेकर कम्पनी, निज़ाम और मराठों ने बाँट लिया। इसके सिवा टीपू को ३ क़िस्तों में ३ करोड ३० हजार रुपया दण्ड देने का भी वचन देना पड़ा; और इस दण्ड की अदायगी तक अपने दो बेटों को-जिनमें एक की आयु १० वर्ष और दूसरे की ८ वर्ष की थी-बतौर बन्धक अंगरेज़ों के हवाले करना पड़ा। इस पराजय से टीपू का दिल टूट गया, और उसने पलंग-बिस्तर छोड़कर टाट पर सोना शुरू कर दिया, और मृत्यु तक उसने ऐसा ही किया । अस्तु ! टीपू ने ठीक समय पर दण्ड का रुपया दे दिया, और बड़ी मुस्तैदी से वह अपने राज्य, राज्य-कोष और प्रबन्ध को ठीक करने लगा। युद्ध के कारण जो मुल्क की बर्बादी हुई थी, उसे ठीक करने में उसने अपनी सारी शक्ति लगादी। सेना में भी नई भर्ती करना और उसे शिक्षा देना उसने आरम्भ किया। इस प्रकार शीघ्र ही उसने अपनी क्षति-पूर्ति करली। उधर अंगरेज़ सरकार भी बेखबर न थी। उधर भी सैन्य-संग्रह हो रहा था। निज़ाम सबसीडीयरी सेना के जाल में फंस गया था, और पेशवा के पीछे सिन्धिया को लगा दिया था। पर प्रकट में दोनों ओर से मित्रता और प्रेम के पत्रों का भुगतान हो रहा था । अन्त में सन् १७६६ की ६ जनवरी को हठात् टीपू को वेलेजली का एक पत्र मिला, उसमें लिखा था-"अपने समुद्र-तट के समस्त नगर अंगरेज़ों के हवाले कर दो, और २४ घण्टे के अन्दर जवाब दो।" ३ फ़रवरी को अंगरेज़ी फ़ौजें टीपू की ओर बढ़ने लगीं। टीपू युद्ध को तैयार न था। उसने सन्धि की बहुत चेष्टा की, पर वेलेजली ने कुछ भी ध्यान न दिया। जल और थल दोनों ओर से टीपू को घेर लिया गया था।