- २८७ गुप्त साजिशों से बहुत से सरदार फोड़े जा चुके थे। अंगरेजों के पास कुल तीस हजार सेना थी। प्रारम्भ में टीपू ने अपने विश्वस्त सेनापति पुर्णियाँ को मुकाबले में भेजा। पर वह विश्वासघाती था । वह अंगरेज़ी फ़ौज के इधर-उधर चक्कर लगाता रहा और अंगरेजी आगे बढ़ती चली आई। यह देख, टीपू ने स्वयं आगे बढ़ने का इरादा किया। पर विश्वासघातियों ने उसे धोखा दिया, और उसकी सेना को किसी और ही मार्ग पर ले गये। उधर अंग- रेजी सेना दूसरे ही मार्ग से रंगपट्टन आ रही थी। पता लगते ही टीपू ने पलटकर गुलशनबाद के पास अंगरेजी सेना को रोका। कुछ देर घमा- सान युद्ध हुआ। सम्भव था, अंगरेजी सेना भाग खड़ी होती–पर उसके सेनापति कमरुद्दीनखाँ ने दगा दी, और उलटकर टीपू की ही सेना पर टूट पड़ा। इस भाँति अंगरेज़ विजयी हुए। इसी बीच में टीपू ने सुना कि एक भारी सेना बम्बई की तरफ़ से चली आ रही है। टीपू वहाँ कुछ सेना छोड़, उधर दौड़ा, और बीच में ही उस पर टूटकर उसे भगा दिया। परन्तु उसके मुखबिर और सेनापति सभी विश्वासघाती थे। टीपू को वे बराबर गलत सूचना देते थे । ज्योंही टीपू लौटकर रंगपट्टन आया कि अंगरेजी सेना ने शहर घेरकर आग बरसाना शुरू कर दिया। टीपू ने सेनायें भेजीं। पर सेनापतियों ने युद्ध के स्थान पर चारों ओर चक्कर लगाना शुरू कर दिया। अंगरेज़ फ़तह कर रहे थे और टीपू को ग़लत खबरें मिल रही थीं। क्रोध में आकर टीपू ने तमाम नमकहरामों की सूची बनाकर एक विश्वस्त कर्मचारी को दी, और कहा-"इन्हें रात को ही क़त्ल करदो।" पर एक फ़र्राश की नमकहरामी से भण्डाफोड़ हो गया। उसी दिन टीपू घोड़े पर चढ़कर क़िले की फ़सीलों का निरीक्षण करने निकला, और एक फ़सील पर अपना खेमा लगवाया। कहते हैं ज्योतिषियों ने उससे कहा था-"आज का दिन दोपहर के ७ घड़ी तक आपके लिये शुभ नहीं।" उसने ज्योतिषियों की सलाह से स्नान किया, हवन- जप भी किया, और दो हाथी-जिन पर काली झूलें पड़ी थीं और जिनके चारों कोनों में सोना, चाँदी, हीरा, मोती बँधे थे ब्राह्मण को दान दिये,
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