३१७ सर्वभौम आदि शब्द अपने-अपने पद के सूचक मिलते हैं। अथर्ववेद में राज्य, स्वराज्य, साम्राज्य, वैराज्य और आधिपत्य शब्द मिलते हैं, जिनसे पता लगता है कि अत्यन्त प्राचीन काल से भारत में विस्तृत साम्राज्य पद्धति रही है। वैदिक यज्ञों के प्रकरण में बताया गया है कि राजसूय और वाजपेय- यज्ञ राजनैतिक उद्देश्यों से होते हैं। राजसूय से वाजपेय का महत्व अधिक था। यज्ञ की समाप्ति पर राजसूय से राजा का पद मिलता था, परन्तु वाजपेय से सम्राट का पद मिलता था, सिंहासनारूढ़ होने पर 'सम्राज्य- मस्तै'-'सम्राज्यमस्तै, की घोषणा होती थी, और फिर सम्राट् से निवेदन किया जाता था- "इयं ते राडिति राज्य मेवास्मिन्ने तद दधान्यथैन मासा दयति यन्तासी यमन इति यन्तार मेघन में तद यमन मासां प्रजानां करोति ध्रुवो- ऽसि अरुण इति ध्र ब से वैनमेतद् अरुणयस्मिल्लोके करोति कृत्यैत्वाक्षमाय त्वा प्य पोषाय त्वेति साधवे त्वेत्येवतेदाह ।" अर्थात्-यह आपका राज्य है। आप इसके स्वामी हैं। आप दृढ़ और स्थिर-वृत्ति हैं। कृषि, धन, धान्य, प्रजा का पालन और रक्षा करने के लिये आपको समर्पण किया जाता है। ऐसे सम्राटों की सूची बनाई जा सकती है, जिनका जिक्र वेद, पुराण और महाभारत में मिलता है। चाणक्य आर्य ने अपने अर्थशास्त्र में भी चक्रवतियों की एक सूची दी है, जिन्होंने राजनैतिक दृष्टियों से समस्त भारत को एक किया था, और चन्द्रगुप्त के विषय में तो उसने लिखा है- "हिमे वत् समुद्रान्तरं-चक्रवति क्षेत्रम् ।"
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