३३४ 1 - ढीला हुआ, स्त्रियों का पद ऊँचा हुआ। उदारता और दयालुता फैली। इस्लाम के साथ हिन्दू-मत का मेल हुआ । कर्मकाण्ड, तीर्थ-आदि का महत्व घटा, और सब भाँति से राष्ट्रीय क्षमता की वृद्धि हुई। परन्तु दारा के पतन और औरङ्गजेब के उदय के साथ ही मुग़ल- साम्राज्य का सौभाग्य नष्ट हुआ। दारा अपने पिता का सच्चा प्रतिनिधि था। उसके विचार बहुत उत्तम थे। औरङ्गजेब ने धार्मिक संकीर्णता को अपनी राजनीति बनाया, जिससे चिढ़कर बहुत-से राजपूत, मराठे, सिख- राजे उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए। सम्पूर्ण देश ही विरोधी शक्तियों में उठ खड़ा हुआ, और हिन्दू-मुस्लिम-ऐक्य की सम्भावना हवा होगई । औरङ्गजेब कठोर, संयमी और परिश्रमी व्यक्ति था। इसलिये उसके जीते-जी विद्रोह की आग न भड़कने पाई। उसका वह दमन करता रहा। इस बादशाह ने राज्य भी बहुत दिन तक किया, और एकता के विध्वंस होजाने तथा संकीर्णता के प्रबल होजाने के काफी अवसर मिले । उसके मरते-ही साभ्राज्य के टुकड़े-टुकड़े होगये । देश के सभी उद्योग-धन्धे, समृद्धि, व्यापार छिन्न- भिन्न होने लगे। औरंगजेब के उत्तराधिकरियों ने फिर अपने पूर्वजों की रीति का पालन करने की चेष्टा की । शाहआलम ने पूना के पेशवा को अपने राज्य का वकील बनाया, तथा माधोजी सिंधिया को देहली और आगरे का सूबेदार बनाया । शाहआलम के पुत्र अकबरशाह ने राजा राममोहन राय को राजा का खिताब देकर तथा अपना एलची बनाकर इंगलैंड भेजा । अन्तिम सभ्राट बहादुरशाह तो हिन्दू-मुसलमानों को एक-दृष्टि से देखते ही थे। बंगाल में पलासी-युद्ध के बाद तक बड़े-बड़े प्रान्तों की दीवानी बंगाल के हिन्दू-ज़मी- दारों के हाथ में थी, और उनमें तथा मुसलमानों में किसी भाँति का भेद- भाव नवाब के दरबार में नहीं माना जाता था। सिराजउद्दौला का सबसे अधिक विश्वस्त अनुचर राजा मोहनलाल था, जिसने पलासी युद्ध में नवाब के लिये प्राण दिये । महाराजा नन्दकुमार भी उनके एक दीवान थे। पंजाब में महाराज रणजीतसिंह के कई मन्त्री मुसलमान होते थे। होलकर और सिंधिया के दीवान और उच्चाधिकारी 1 1
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