३३५ बहुधा मुसलमान होते थे। हैदरअली और टीपू सुलतान के प्रधानमन्त्री हिन्दू थे । नाना फड़नवीस हैदरअली को बहुत मानते थे। परन्तु शोक की बात तो यह थी कि दिल्ली की केन्द्रीय शक्ति छिन्न- भिन्न हो चली थी, और देश की राजनीति राष्ट्रीयता से रहित थी। इसी का फ़ल यह हुआ कि अंगरेज़-सत्ता ने आसानी से, केवल जादू के ज़ोर पर, औरंगजेब की मृत्यु के पचास वर्ष बाद ही-पलासी के मैदान में ऐसी विजय प्राप्त की, जिसे पढ़-सुनकर संसार के राजनीतिज्ञ चिरकाल तक आश्चर्य करेंगे। युद्ध-विद्या और क़िले-बन्दी के कामों में भी मुग़लों ने बहुत उन्नति की। बन्दूकों और तोपों का रिवाज अधिकतर मुग़लों ही के समय में फैला। फ़ौज की, मालगुजारी की, बन्दोबस्त की, हिसाब-खाते की, जो व्यवस्था मुग़लों ने की—वह अत्यन्त प्रशंसनीय थी। तिथि-वार ठीक-ठीक रोजनामचा या इतिहास लिखना हिन्दुओं ने मुसलमानों ही से सीखा था। बौद्धों के ह्रास होने के बाद से भारतीय व्यापार बहुत गिर चला था। वह मुग़लों के काल में फिर से उन्नत हुआ। मुग़ल-राज्य के लगभग अन्त तक अफग़ानिस्तान, दिल्ली के बादशाह के आधीन था, और अफगानिस्तान के ज़रिये बुखारा, समरकन्द, बलख, खुरा- सान, ख्वारज़िम और ईरान के हजारों व्यापारी तथा यात्री भारत में आते थे । जहाँगीर के काल में प्रति-वर्ष सिर्फ बोलन दर्रे से १४ हजार ऊँट माल से लदे आते थे। इसी प्रकार पश्चिम में ठट्ठा, भड़ौंच, सूरत, चाल, राजा- पुर, गोआ, कारवार और पूर्व में मछलीपट्टन तथा अन्य बन्दरगाहों से हज़ारों जहाज प्रति-वर्ष अरब, ईरान, तुर्क, मिश्र अफ्रीका, लंका, सुमात्रा, जावा, स्याम और चीन से आते-जाते रहते थे। बनियर कहता है- “यह बात भी कम ध्यान के योग्य नहीं है, कि संसार में घूम-घाम- कर सोना-चाँदी जब भारतवर्ष में पहुँचता है, तो यहीं खप जाता है । अमेरि- का से जो रुपया योरुप के देशों में फैलता है, उसमें से कुछ तो उन वस्तुओं के बदले में, जो टर्की (रूस) से आती हैं, अनेक द्वारों से टर्की में चला जाता है, और कुछ समरनोक बन्दरगाह के मार्ग से ईरान में पहुँच जाता है। -
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