पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३१
 

वह भी मारा गया। जब उसका सिर ख़लीफ़ा के सामने लाया गया, उसके क़ातिल को एक हज़ार अशर्फी इनाम देने का हुक्म दिया, परन्तु क़ातिल ने इन्कार करते हुए कहा---मेरी उम्र सत्तर साल की है, मैंने समय का खूब रंग देखा है। इसी कोफे के किले में हुसेन का सिर अब्दुल्ला इब्ने के सामने लाया गया। इब्ने जयाद का मुन्तकिम के सामने और मुन्तकिम का मसअब के सामने। और अब असअब का सिर आपके सामने लाया गया है। बुड्ढे की बात सुनकर ख़लीफ़ा बहुत शर्माया और किले को मिसमार करने का हुक्म दिया।

अब्दुल्ला अब भी मक्का और मदीने का ख़लीफ़ा बना बैठा था। उस पर चढ़ाई करने को ख़लीफ़ा ने हज्जाज को सेना देकर भेजा। अब्दुल्ला वीरता से लड़कर मारा गया। इससे मक्का और मदीना भी अब्दुल मलिक के हाथ आ गया। अब सिर्फ खुरासान रह गया था। उसे भी हज्जाज ने फतह कर लिया, अतः वह कासदिया की तरफ रवाना होगया। रास्ते में उमर अपने चार हज़ार सवार लिये मिला और कहा-कोफे के आदमी आप से फिर गये हैं। आप मक्के की तरफ चले जायँ। साथ ही उसने अब्दुल्ला को भी लिख भेजा कि हुसेन को मक्के की तरफ चले जाने दें। पर उसने स्वीकार न किया। और उमर को लिखा कि हुसेन को पानी मिलना बन्द कर दो। और यजीद की प्रभुता स्वीकार कराओ।

पानी बन्द होने से हुसेन और उसके परिवार के आदमी तड़पने लगे। फिर भी हुसेन ने यजीद को ख़लीफ़ा नहीं माना। अन्त में अब्दुल्ला ने लिखा कि यदि वे नहीं मानते तो उनका सिर काट लो और शरीर को घोड़ों से रौंदवा दो। यह हुक्म पाकर उमर ने फिर हुसेन को समझाया पर उन्होंने न माना। और अपने साथियों से कहा---मुझे मेरे भाग्य पर छोड़ कर आप लोग चले जायें। पर उन लोगों ने हुसेन के साथ मरना स्वीकार किया। हुसेन के साथ बत्तीस सवार और चालीस प्यादे थे। सबों ने स्नान करके कपड़े पहने, इत्र लगाया और मरने को तैयार हो गये। इतने में तीस सवार शत्रु सेना से निकल कर हुसेन से आ मिले।

लड़ाई शुरू हो गई। थुमरशक अफसर था। उसने हुसेन के डेरों में आग लगाने का हुक्म दिया। इस पर हुसेन की स्त्री और बच्चे चिल्लाने