न मुस्लिम जनता ने। मुल्ला और पण्डित पक्के रूढ़िवादी रहे। यद्यपि रामानन्द स्वामी ने बड़ा साहस किया, उन्होंने अकबर से प्रथम ही एक बीज एकता का अरोपित किया था और उन्होंने एक सन्त सम्प्रदाय के ऐसे रूप को जन्म दिया जो अति उदार था। उन्होंने कट्टरता को त्याग दिया। उन्हें इसके लिए सम्प्रदाय से बहिष्कृत होना पड़ा। परन्तु उन्होंने यह देख लिया था कि सच्चे भक्ति-मार्ग में जाति वर्ग अथवा अन्य सांसारिक बन्धनों का कोई स्थान ही नहीं है। सबसे प्रथम उन्होंने छुआछूत को धता बताई और हर किसी का छुआ भोजन करना प्रारम्भ किया। इस प्रकार रामानन्द स्वामी अपनी कृत्रिम ऊंचाई से प्रेम और भक्ति के स्वभाविक धरातल पर उतर पड़े और बिना किसी वर्ण-जाति-भेद के लोगों के बीच अपने नये सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करने लगे। उन्होंने संस्कृत को त्याग लोक भाषा में प्रचार करना प्रारम्भ किया, जनता की भाषा में ज्ञानोपदेश देकर वे लोगों को आध्यात्मिक संस्कृति के स्वाभाविक क्षेत्र की ओर आकर्षित करने लगे। अब उन्होंने ग्यारह मुख्य शिष्य बनाये :---रविदास या रैदास (चमार), कबीर (जुलाहा), धन्ना (जाट), सेन (नाई), पीपा (राजपूत), भवानन्द, सुखानन्द, आशानन्द, सुर-सुरानन्द, महानन्द और श्री आनन्द। इसके सिवा कुछ स्त्रियों को भी उन्होंने शिष्य बनाया।
इस प्रकार उन्होंने प्रचलित परम्परा को छोड़कर निम्नस्तर से आये लोगों में उच्च भावनाओं का समावेश किया। आप देख सकते हैं कि इन सन्तों ने भारतीय संस्कृति में कितना हिस्सा लिया, और इन शिष्यों की शिष्य परम्परा में भारत के निम्नस्तर के लोगों में कितना जीवन-संगठन सौर सांस्कृतिक प्रभाव पैदा किया। यह भूमि थी जिस पर अकबर और बल्लभाचार्य को चलने का सुअवसर मिला। परन्तु जैसा कि कहा गया है हिन्दुओं और मुस्लिम जनता ने इस प्रगति में पूर्ण सहयोग नहीं दिया। हिन्दुओं के मन में मुस्लिमों के प्रति घृणा और अस्पृश्यता के भाव वैसे ही कटु बने रहे। वे उन्हें म्लेच्छ समझकर उनसे दूर ही रहते रहे। मुसलमान चाहे बादशाह ही क्यों न हों, एक साधारण हिन्दू के लिए भी वह इस प्रकार अस्पृश्य था कि वह उसके हाथ का छुआ जल भी नहीं पी सकता था। उसी प्रकार मुसलमान शासक भी हिन्दुओं को काफ़िर, गुलाम समझकर अपने राजपद के आश्रय से उन्हें अपमानित करने का कोई अवसर छोड़ते न थे। इस प्रकार की तनातनी ने औरंगजेब के काल में फिर वही कट्टरता और संघर्ष उत्पन्न कर दिया। परन्तु अब हिन्दू संगठित हो गये थे। तुलसी के राम ने हिमालय से सेतुबन्ध रामेश्वर तक शक्ति और संगठन की सामर्थ्य जनता में भर दी थी। तुलसी के प्रभाव से पचास वर्षों में भारत में भारी सांस्कृतिक विकास हुआ। इन पचास वर्षों में दो सौ चौहत्तर कवि उत्पन्न हुए जिन्होंने हिन्दू-जाति के संगठन में सहारा दिया। इस काल में भक्ति और साहित्य का ऐसा उज्ज्वल रूप प्रकट हुआ कि उसने भारत के इतिहास की धारा को ही पलट दिया।
इन्हीं तुलसी के राम का बल पाकर छत्रसाल ने केवल पांच सवारों और पच्चीस