पैदलों की सेना लेकर प्रतापी औरंगजेब से लोहा लिया और विजय पर विजय प्राप्त करके दो करोड़ वार्षिक आय का विशाल राज्य बुन्देलखण्ड स्थापित कर लिया। इसी तुलसी के रामाश्रय होकर दक्षिण में बालाजी विश्वनाथ और बाजीराव पेशवा ने मुग़ल साम्राज्य को ध्वंस कर पाँच सौ वर्षों के खोये हिन्दू साम्राज्य की फिर से स्थापना की। यह तुलसीदास के महान् हिन्दू संगठन के महान् परिणाम थे, कि दो ही शताब्दियों के भीतर हिन्दू साम्राज्य भारत में स्थापित हो गया। यह हिन्दुओं का दुर्भाग्य कि था कि १४वीं शताब्दी में उसकी झोक सम्हालने वाला कोई प्रतापी संगठनकर्ता हिन्दुओं ने पैदा नहीं किया।
कांग्रेस ने राजनैतिक मंच पर उन्हें एक झंडे के नीचे ले आने की चेष्टा की। परन्तु यह सफल न हुई और कांग्रेस ही को पाकिस्तान का विभाजन स्वीकार करना पड़ा-जिससे देश के खण्ड-खण्ड तो हो ही गये, अव्यवस्था और रक्तपात के भी ऐसे दर्दनाक फल भोगने पड़े कि जिनकी समता मानव-चरित्र के इतिहास में है ही नहीं।
आज भारतीय मुसलमान पाकिस्तान का प्राप्तव्य पा चुके हैं। वहाँ वे अपनी कट्टर, अनुदार और साम्प्रदायिक भावना का जो उद्दीपन कर चुके हैं, स्पष्ट ही ऐसी है कि जिसमें किसी भी हिन्दू का पाकिस्तान में प्रतिष्ठा और स्वतन्त्रता से रहना सम्भव ही नहीं है। परन्तु हमारी दिक्कतें तो अभी वैसी ही गम्भीर बनी हुई हैं। जो मुसलमान भारत में रह गये हैं, उन्हें भारतीय-भावना से ओतप्रोत करने का अभी तक कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बनाया गया। आज वे भारत में अपने को खोया-सा, पराया-सा समझ रहे हैं। उनमें विद्रोह की भावना भी है। दूसरी ओर भारतीय हिन्दू उन्हें क्रोध और विद्वेष की भावना से देखते हैं। चाहे जितनी भी यह भावना छिपाई जाय, वह छिप नहीं रही है।
इन दोनों भावनाओं के लिये सरकारी कानून या शाब्दिक घोषणायें अपर्याप्त हैं। समय की आवश्यकता है कि मुस्लिम समाज के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक नेताओं को प्रामाणिकता से भारतीय जीवन की मूल धारा को अंगीकार करना चाहिए और हिन्दू समाज को उदारता का परिचय देकर उन्हें स्वीकार कराना चाहिए। इसी में भारत का कल्याण है।
शाहदरा, दिल्ली।
-लेखक