घोड़ों की आढ़त लगाई थी, प्रति वर्ष दस हज़ार घोड़े फारस से मावर आते थे जिनकी क़ीमत बाईस लाख दीनार था।
रशीदुद्दीन के मतानुसार जमालुद्दीन १२९३ ई० में कायल का अधि- कारी हुआ था और उसका भाई तक़ीउद्दीन उसका नायक था---यही व्यक्ति सुन्दर पाण्य का मन्त्री रह चुका था। पाण्य राज ने जमालुद्दीन के पुत्र फ़ख़रुद्दीन अहमद को दूत बनाकर चीन के महाराज वुवुलेखाँ के साथ १२८६ ई० में भेजा था।
इब्नवतूता का कहना है कि तामिल प्रान्त में जब कि मदुरा का हाकिम ग़यासुद्दीन अद्दमनानी था---राजा पीरवल्लाल की सेना में बीस हज़ार मुसलमानों का एक दस्ता था। राजा के सूबेदार हरि अफ्फा ओडयार की आधीनता में होनावर मुसलमान हाकिम थे।
पाठक देखेंगे कि सातवीं शताब्दी में दक्षिण में मुसलमान व्यापारी किस ढङ्ग पर आकर धीरे-धीरे सैनिक, सेनानायक, मन्त्री, बेड़ों के अधिपति दूत, अध्यक्ष और हाकिम तक बन गये।
परन्तु दक्षिण में जिस प्रकार चुपचाप इस्लाम भारत में जड़ जमा रहा था---उत्तर में इसका रूप कुछ और ही था। मुलतान और सिन्ध को विजय कर क़ासिम लौट गया, तब लगभग तीन सौ वर्ष तक और कोई आक्रमण नहीं हुआ। इस समय पच्छिम प्रान्त पर कुछ मुसलमान शासक थे---परन्तु काठियावाड़ गुजरात-कोकण---दायवल-सोमनाथ भडोच, खंबायत, सिहान, चोल में इनकी बस्तियाँ बस रही थीं। काबुल में एक ब्राह्मण राजा राज्य करता था। परस्पर के झगड़े खूब थे। परन्तु मुसलमानों से सभी को दिलचस्पी थी--यह अद्भुत बात है। सुलेमान सौदागर ने लिखा है---'वल्हार' (बल्लभिराय) के बराबर अरबों से हिन्दुस्तान में कोई राजा प्रेम नहीं करता।
आठवीं शताब्दी के अन्त में अफग़ागिस्तान भी मुसलमानी तलवार के आधीन हो गया था। और अफग़ानों ने अब खैबर घाटी से छोटे-छोटे धावे मारने प्रारम्भ कर दिये थे।
अठारहवीं शताब्दी में एक तुर्की गुलाम सुबुक्तग़ीन जो खुरासान को और गज़नी दख़ल कर बैठा था, भारत में घुस आया। उस समय पंजाब