पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/७६

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ब्याह लाया। जयचन्द इससे क्रोध में जल भुन गया। उसने चिढ़कर राजसूय यज्ञ किया और उसी में अपनी पुत्री का स्वयंवर रचा। सभी आधीन राजाओं को बुलाकर सेना कर्म में नियुक्त किया। पृथ्वीराज नहीं बुलाये गये थे। पर उनकी मूर्ति द्वारपाल के स्थान पर बनाकर खड़ी कर दी गई। पृथ्वीराज ने यह सुना, उसे यह भी मालूम था कि संयोगिता उसे चाहती है, वह भेष बदल कर अपने मित्र कवि चन्द वरदाई के साथ वहाँ पहुँच गया। संयोगिता ने उपस्थित राजाओं को अतिक्रमण करके पृथ्वीराज की मूर्ति के गले में जयमाला डाल दी। यह देख जयचन्द क्रुद्ध होकर उसे मारने को झपटा, पर पृथ्वीराज ने सिंह की भाँति झपटकर उसे उठा लिया और घोड़े पर चढ़ाकर तलवार खींचकर गहरवारों को ललकार कर कहा कि पृथ्वीराज चौहान जयचन्द की कन्या का हरण करता है, जो क्षत्रिय हो रोक ले।

तलवारें खटकीं। भयानक मारकाट मची। पृथ्वीराज की सेना में एक सौ आठ सेनापति थे, और वे दिल्ली से कन्नौज तक एक-एक कोस के अन्तर पर अपनी-अपनी सेना लिये सन्नद्ध खड़े थे। जयचन्द के पुत्र ने ललकार कर कहा---क्षत्रिय होकर भागते क्यों हो, डोला रख दो और तलवारों से निबट लो, जो विजयी हो डोला ले जाय। संयोगिता पालकी में बैठा दी गई, और घनघोर युद्ध हुआ। प्रतिदिन दिन भर युद्ध होता और सन्ध्या समय डोला आगे बढ़ता था।

सोरों में डट कर युद्ध हुआ। गंगा का जल लाल हो गया। अन्त में दिल्ली की सीमा आ गई और जयचन्द को हार कर लौटना पड़ा, इससे उसकी क्रोधाग्नि कुचले हुए सर्प की भाँति भभक उठी।

सोलंकियों और गहरवारों ने मुहम्मद ग़ौरी को लिखा कि यदि इस समय पृथ्वीराज पर आक्रमण किया जाय तो हम सहायता कर सकते हैं। मुहम्मद गौरी एक लाख बीस हज़ार सवार लेकर चढ़ दौड़ा। जयचन्द और सोलंकियों की सेना भी सहायता के लिए पहुँच गईं। पृथ्वीराज उस समय संयोगिता के प्रेम में मतवाला हो रहा था। उसने झटपट सेना तैयार की, परन्तु उसके बाँके वीर प्रथम ही काम आ चुके थे। घर के शत्रुओं और विश्वासघातियों की कमी न थी, केवल चित्तौर के अधिपति समरसिंह जो उसके बहनोई थे, अपनी सेना सहित उसके साथ थे। तला-