पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/८६

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शेख उमर गद्दी पर बैठा---यह दयालु और न्यायी था, प्रजा इसे बहुत पसन्द करती थी। इसने लड़ाई-झगड़े नहीं किये, अपनी प्रजा पालन में ही संतुष्ट रहा। इसे कबूतर उड़ाने का बड़ा शौक़ था---एक बार वह कबूतर उड़ाते हुए महल की छत से पैर फिसल जाने से गिर गया और मर गया। इसने पाँच वर्ष दो मास सात दिन राज्य किया।

इस ख़ानदान का पाँचवाँ बादशाह सुल्तान महमूद कट्टर मुसलमान था---इसने बारम्बार हिन्दुस्तान पर चढ़ाई की। यह सदा अपने राज्य के बढ़ाने की धुन में रहता और दिन भर में कई बार कुरान पढ़ता। हिन्दुस्तान पर चढ़ाइयाँ कीं और बहुत से मन्दिरों को ढाया और लूटा।

एक बार उसने एक पठान बादशाह पर चढ़ाई की और विजय प्राप्त की। सायंकाल को जब रणक्षेत्र में हज़ारों लाशों को रोंदता हुआ गर्व से फूला जा रहा था तब एक घायल ने तीर मारकर उसका काम तमाम कर दिया। इस प्रकार इस प्रसिद्ध योद्धा का अन्त हुआ।

इसके बाद बाबर ने हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया। उस वक्त दिल्ली की गद्दी पर कमजोर पठान बादशाह इब्राहीम लोदी राज्य करता था।

इन्हीं दिनों में मेवाड़ में महाराजा संग्रामसिंह जी चमके थे। इन्होंने सन्मुख युद्ध में अठारह बार दिल्लीश्वर को और मालवा के मुसलमान बादशाह को परास्त किया था। इस प्रकार सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही पठानों की लीला समाप्त हुई थी और मुगलों की शक्ति सञ्चित होने के लिये समय की प्रतीक्षा करने लगी थी।

परन्तु इतना होने पर भी हिन्दू संगठित नहीं हो रहे थे। तैमूर के बाद से अकबर के समय तक एक सौ अट्ठावन वर्ष का दीर्घ काल एक प्रकार से अराजक काल था। दिल्ली के तख्त में न शक्ति थी, न दृढ़ता थी। परस्पर के युद्ध जारी थे। पठानों की मुसलमानी सत्ता निर्मूल वृक्ष की भाँति अधर में काँप रही थी। हिन्दू यदि उसे उस समय एक धक्का देने योग्य भी होते तो वह बह जाती।

क़ासिम ने जब सातवीं शताब्दी में आक्रमण किया था तब से और आठ सौ वर्ष बीत जाने पर सोलहवीं शताब्दी में बड़ा अन्तर था। क़ासिम से कड़ाई से मुठभेड़ की गई थी। किसी ने क़ासिम को आत्मसमर्पण नहीं