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भाव-विलास

 

देखियो बात चलै न कहूँ, यह छूटिहैगी कुल लोक की लीकते।
घूमति है घर ही मै घनी, यह घायल लो घर घाल घरीकते॥

शब्दार्थ—नजीकतें–पास से। चहुँओर–चारों ओर।

दोहा

तामै गुप्ता विदग्धा, लक्षितारु कुलटानु।
अन्तरभूत बखानिए, अनुसयना मुदितानु॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—प्रौढ़ा परकीया के गुप्ता, विदग्धा, लक्षिता, कुलटा और मुदिता ये पाँच भेद और होते हैं।

क–गुप्ता
सवैया

झँझरी के झरोखनि ह्वै के झकोरति, रावटीहू मैं न जाति सही।
'कविदेव' तहाँ कहौ कैसिक सोइये, जी की विथा सु परै न कही॥
अधरानु को कोरति, अंग मरोरति, हारनि तोरति जोर यही।
घर बाहिर जाहिर भीतर हूँ, बन बागनि बीर बयारि बही॥

शब्दार्थ—झँझरी–खिड़की। हारनि–हारो को। बयारि–हवा।

दोहा

कहत विदग्धा भाँति द्वै, सकल सुमति बर लोइ।
वाकविदग्धा बहुरि अरु, क्रियाविदग्या होइ॥