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विभाव

 

मोहि लई कविदेवन तें, अति रूप रचे बिकचे कचनारनि।
हेरत ही हरनीनयना को, हरो हियरा हरि के हिय हारनि॥

शब्दार्थ—वृषभानलली—राधिका। मैं—में। पिक-पुञ्ज—कोयलों का समूह। पुकारनि—बोल। तैसिय—वैसे ही। नूतन—नयी। नूत—अनोखा अनूठा गुञ्जत-गुंजारते हैं। भरे मधु भारनि—मधु के बोझ लदे हुए। बिकचे—खिले हुए। हेरत ही—देखते ही। हरनीनयना—हरिनी जैसे नैनों वाली। हरो—हरण किया, मोह लिया। हियरा—हृदय। हिय-हारनि—हृदय के हारों ने।

उदाहरण चौथा—(आभूषण)

खोरि मैं खेलन ल्याई सखी, सब बालको भेष बनाइ नवीनो।
आरसी में निज रूप निहारि, अनङ्ग तरङ्गनि सो मनु भीनो॥
जोति जवाहर हारन की मिलि, अञ्चल को छल क्यों पट भीनो।
हेरि इतै हरिनीनयना हरि, हैरत हेरि हरै हंसि दीनो॥

शब्दार्थ—खोरि—गली, संकुचित मार्ग। नवीनो—नय। आरसी—दर्पण। अनङ्ग—कामदेव। पट—कपड़ा। झीनो—महीन। हेरि—देखकर।

उदाहरण पाँचवां—(बन-केलि)
सवैया

सोहे सरोवर बीच बधूबर, ब्याह को वेष बन्यो बर लीक सो।
लाज गड़े गुरु लोगन की पट, गांठि दै ठाड़े करैं इक ठीक सो॥
न्हात पमारी से प्यारी के ओठ ते, झूठौ मजीठ निहारि नजीक सो
तीकी रंगी अँखियाँ अनुराग सों, पी की वहै पिकबैनी की पीक सो॥