पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/२२

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३—अनुभाव
दोहा

जिनकों निरखत परस्पर, रस कौ अनुभव होइ।
इनहीं कौ अनुभाव पद, कहत सयाने लोइ॥१॥
आपुहि ते उपजाय रस, पहिले होंहि विभाव।
रसहि जगावैं जो बहुरि, तौ तेऊ अनुभाव॥२॥
आनन, नयन-प्रसन्नता, चलि-चितौनि मुसक्यानि।
ये अभिनय सिंगार के, अङ्ग भङ्ग जुत जानि॥३॥

शब्दार्थ—निरखत—देखने पर। सयाने—विद्वान। लोइ—लोग। बहुरि—फिर।

भावार्थ—जिनको देखकर परस्पर रस का अनुभव हो उन्हें बुद्धिमान लोग अनुभाव कहते हैं। पहले रस की उत्पत्ति करनेवाले विभाव और फिर उसको अनुभव करानेवाले अनुभाव कहलाते हैं। मुख, आँखों की प्रसन्नता, कटाक्ष, मुस्काना, अङ्ग भङ्ग आदि अनुभावों के साधन हैं।

उदाहरण पहला—(आनन-प्रसन्नता)
सवैया

ठाढ़ो चितौत चकोर भयो, अनतै न इतौ तु कहूँ चित दीजतु।
सामुहैं नंद क़िसोर सखी, कवि को मुसक्यानि सुधारस भीजतु॥
भाग ते आइ उऔ 'कवि देव', सुदेख भटू भरि लोचन लीजतु।
तेरे री चंदमुखी मुखचंद पै, पूरन चंद निछावरि कीजतु॥