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अनुभाव
औरौ बिबिध बिभाव के, बहु अनुभावनु जानु।
जिन सें रस जान्यो परै, ते कविदेव बखानु॥
शब्दार्थ—बहु—अनेक, बहुत। जान्यो परै—ज्ञात हो।
भावार्थ—भिन्न भिन्न विभावों के और भी अनेक तरह के अनुभाव होते हैं। जिनसे रसों का अनुभव हो वे सभी अनुभाव कहलाते हैं।
आवति जाति गली मैं लली, हरि हेरि हरैं हियरा हहरैगी।
बैरी बसैं घर घाल घरी मैं, घरै घर घेरि घरी उघरैगी॥
हौं कविदेव डरौं मन मैं, मनमोहनी तू मन मैं न डरैगी।
हाहा बलाइ ल्यौ पीठ दै बैठुरी, काहू अनीठि की दीठि परैगी॥
शब्दार्थ—बैरी—शत्रु। हौं—मैं। बलाइल्यौं—बलिहारी जांऊ, बलैया लूँ। दीठि—दृष्टि, नज़र।