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सात्विक भाव
दोहा
थिति बिभाव अनुभाव तें, न्यारे अति अभिराम।
सकल रसनि मै संचरें, संचारी का नाम॥
ते सारीर रु आंतर, द्विविध कहत भरतादि।
स्तंभादिक सारीर अरु, आंतर निरबेदादि॥
आठ भेद स्तंभादि के, तिनको सात्विक नाम।
तेई पहले बरनिये, सरस रीति अभिराम॥
शब्दार्थ—न्यारे—निराले, अलग। अभिराम—सुन्दर। द्विविध—दो तरह के। भरतादि—भरत आदि आचार्य।
भावार्थ—स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव से पृथक जो भाव रसों में सञ्चार करते हैं उन्हें सञ्चारी भाव कहते हैं। ये सञ्चारी भाव भी भरतादि आचार्यों ने दो तरह के माने हैं। एक शारीरिक और दूसरे मानसिक। इनमें स्तम्भ आदि शारीरिक कहलाते हैं और निर्वेद आदि मानसिक। स्तम्भादि के जो आठ भेद हैं; वे सात्विक कहलाते हैं पहले उन्हीं का वर्णन किया जाता है।