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वियोग शृंगार


ओर चहूँ पिक चातक मोर के, सोर सुने सु उठी अकुलाइकै।
भेटी भटू उठि भामते कों, घन धोखे हीं धाम अंधेरे में धाइकै॥

शब्दार्थ—दिनद्वैकते—दो एक दिन से। भामते कों—प्यारेको।

प्रवास वियोग
दोहा

प्रीतम काहू काज दै, अवधि गयो परदेस।
सो प्रवास जहँ दुहुन कौ, कष्टक हैं बिबुधेस॥

शब्दार्थ—प्रवास—विदेश गमन।

भावार्थ—पति के किसी कार्यवश परदेश चले जाने से जब दोनों को वियोग का कष्ट होता है तब उसे प्रवास वियोग कहते हैं।

उदाहरण पहला
सवैया

लाल बिदेस सु बालबधू, बहु भांति बरी बिरहानल ही मैं।
लाज भरी गृहकाज करै, कहि देव परे न कहूँ कलही मैं॥
नाथ के हाथ के हेरि हरा हिय, लागि गई हिलकी गलही मैं।
आँखिन के अँसुवा लखि लोगन, लीलि लजोली लिये पलही मैं॥

शब्दार्थ—बहु भांति..बिरहानलही मैं—अनेक तरह से विरह-रूपी अग्नि में जलने लगी। ग्रहकाज—घर के काम। परे न...कलही में—कभी चैन नही मिलता। हेरि—देखकर। हिय...गलही मैं—गले में हिलकी बँधगयी अर्थात् जोर जोर से रोने लगी। आँखिन......पलही में—आँखों के आँसुओं को लोगों को निहारते देख, चट लील लिया अर्थात् आँखों के आँखों में रोक दिये।