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पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/१२

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- अाज हमें अमृत पिलाया है। यहाँ अमृत वाचक है और इसका लक्षक या लच्यार्थ नायिका-मिलन है। दोनों में समता होते भी लक्षक का निगरण है। इसी सारोप लक्षणा से रूपक अलंकार का प्रादुर्भाव होता है । यहाँ तक शुद्धा-प्रयोजन लक्षणा के भेदों का वर्णन हुश्रा, जिनमें वाच्य तथा लक्ष्य का संबंध सादृश्य पर निर्भर नहीं था अर्थात् दोनों में किसी एक समान गुण के कारण नहीं था । जब यह कहा जाता था कि यह संबंध दोनों में समता के कारण है तो इसका तात्पर्य यह है कि दोनों के किसी विशेष बात का मिलान मिल जाने पर उनके भेद की ओर दृष्टि नहीं डाली गई। जैसे, तीरों और धनुर्धारियों, गंगा और गंगातट, नेत्र और कटाच तथा अमृत और मिलन में समता मानते हुए भी कोई सादृश्य नहीं है परंतु जब वाचक तथा लक्षक का संबंध सादृश्य पर स्थित रहता है तब गौणी लक्षणा कही जाती है । इसके दो भेद हैं- (५) सारोप-गौणी-प्रयोजन-लक्षणा -जब सदृश गुणों के भारोप से वाचक और लक्षक में संबंध स्थापित हो । जैसे, मृगनैनी बेनी फनी डस्यो सो विष उतरै न ॥ सर्प और वेणी में प्राकार-वर्ण सारश्य से वेणी में सर्प का आरोप कर दंशन कराया गया है और प्रेम रूपी विष के न उतरने का कथन हुआ है। ( ६ ) साध्यवसाना-गौणी प्रयोजन-लक्षणा -जब केवल लपक का ही उल्लेख हो। जैसे, ससि में द्वै खंजन चपल, ता ऊपर धनु तान । चंद्र ( मुख ) में दो चपन खंजन ( नेत्र ) हैं और उन पर ताना हुआ धनुष ( भौं ) है । इसमें मुख, नेत्र और भौं के, जो वाचक हैं, उनका उल्लेख नहीं है, जिससे सारोप नहीं हुमा । लक्षणा को यह विवेचना भूषण कौमुदी आधार पर की गई है। साहित्य-दर्पण (श्लो० ५.११) में लपणा के चालीस भेद दिखलाए . गए हैं।