पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/१३

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- शब्द की तीसरी शक्ति व्यंजना है, जिससे शब्द के अभिधा तथा बक्षणा-शक्ति से निकले हुए अर्थ से भिन्न कोई विशेष अर्थ की प्रतीति होती है अर्थात् उस शब्द के वाचक तथा बक्षक अर्थ को छोड़कर विशेष रूप के व्यंजक अर्थ का बोध होता है। परन्तु व्यंग्य के वाच्य तथा बज्य के संबंध से दो भेद होते हैं-अभिधामूला और लक्षणामूना। (१) जिन शब्दों का एक ही अर्थ होता है, उनके संबंध में केवल लक्षणा तथा व्य जना शक्तियों ही का प्रयोग होता है पर जो शब्द अनेकार्थक हैं उनका अभिप्रेत अर्थ अभिधा शक्ति ही द्वारा गृहीत होता है । इस प्रकार निर्णीत अर्थ में जब अन्य अर्थ का ज्ञान होता है तब अभिधामूलक व्यंजना कही जाती है। अर्थ-निर्णय संयोग, वियोग, साहचर्य, विरोध, अर्थप्रकरण, अन्य शब्द का सानिध्य, सामर्थ्य, मौचिस्य, देश-काल-स्वर-भेद आदि से किया जाता है । जैसे, ताप हरै मो करि कृपा बनमाली वन ल्याइ । यहाँ वनमालो से श्रीकृष्ण ही का अर्थ लिया गया है क्योंकि हिंदी के प्राचीन तथा अर्वाचीन कवियों ने इस प्रकार की कृपा करना उनके चरित्र का एक श्रावश्यक अंग मान रखा है। वनमाला धारण किए हुए ( वाचक अर्थ) किसी अन्य पुरुष से यहां तात्पर्य नहीं है। (२) जब वाचक अर्थ के असंगत होने से बचक अर्थ लिया जाय और उसके श्राश्रय से व्यंग्य अर्थ का बोध हो तब लक्षणामूलक व्यंजना कहलाती है। अर्थात् जिस शक्ति द्वारा उस प्रयोजन की प्रतीति होती है और जिसके लिए बचणा का प्राश्रय लिया जाता है वही बघणाश्रया व्यंजना है। जैसे, तेरो रूप विलोकि कै छवि निम को धिक मानि । वाचक अर्थ छवि को धिक मानना असंगत होने से इसका लक्षक अर्थ लिया गया है। जिससे उक्त बात कही गई है उसके रूप की प्रशंसा करना ही प्रयोजन है और व्यंग्य यह है कि वह अधिक सुंदर है।