( १३ ) दलपतिराय-वंशीधर को टीका अलंकार-रत्नाकर सं० १७६२ वि० में लिखी गई थी और तिवा-नरेश के जन्म के पहिले तैयार हो चुकी थी। ( ६ ) तिर्वा नरेश जसवंतसिंह ने शृंगार शिरोमणि में विहित भाव का लक्षण एक दोहे में लिखकर एक सवैया में उसका उदाहरण दिया है। नहिं परन अभिलाख जहँ पिय समीप ते होत । विहित हाव 'यशवंत' सो बरनत बड़े उदोत ॥ पर भाषाभूपण में लचण यों दिया है- बोलि सके नहि लाज से विकृत सो हाव वखानि । म से कम एक ही लेखनी से ये दोनों लक्षण नहीं निकले हैं। विहित । विहृत , और विकृत एकार्थक हैं । पूर्वाक्त विचारों से यही निश्चित होता है कि मारवाद नरेश जसवंतसिंह ही इस ग्रंथ के प्रणेता है और हा० निसन का कथन उसी प्रकार की उनकी एक भ्रांति है, जैसी गोस्वामी तुलसीदासजी के लिखे ‘चनामे के टोडर का प्रसिब राजा टोडरमल बतलाना दूसरी है । कुछ विद्वानों का कथन है कि भाषाभूषण जयदेव-कृत चंद्रालोक के पाँचवें मयूख का अक्षरश: अनुवाद है। यह कहाँ तक ठोक है इसकी विवंचना कुछ श्लोकों तथा दोहों को उदाहरणार्थ उद्धृत करने से स्पष्ट हो जायगी । चन्द्रालोक में अपहृति का लक्षण तथा उदाहरण देकर चार प्रकार की और अपद्धतियों का भी लक्षण तथा उदाहरण दिया गया है। भाषासूपण में चन्द्रालोक को अपहृति को शुद्ध अपहृति मानकर तथा हेत्वपह्नुति को बढ़ाकर छ भेद किए गए हैं। अपहृति ( चन्द्रालोक) अतथ्यमारोपयितुं तथ्यापास्तिरपहुतिः । नायं सुधांशुः किं तहिं व्योमगंगासरोरुहम् ॥ .
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