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पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/३५

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पिय की बातनि के चलें तिय अँगराइ अँभाइ। मोट्टायित से जानिये कहै महा कपिराइ ॥ ३१ ॥ [विरह की दशा] नैन मिले मनहूँ मिल्यो मितिबे का अभिताप । चिंता जाति न दिनु मिलै जतन कियेहूँ लाख ॥ ३२ ॥ सुमिरन रस संजोग को करि कहि लेति उमा त । करति रहति पिय-गुन-कथन मन उद्वेग उदाम ॥३३॥ बिनु समुझे कछु बकि उटै कहिये ताहि प्रलाप । देह घटति मन मैं बढ़ति विरह व्याधि संताप ॥ ३४ ॥ तिय-मूरति मूरति भई है जड़ता मब गात । सो कहिये उन्माद बस सुधि बिन निमदिन जात ॥ ३५ ॥ [ रस और स्थायी भाव ] रस सँगार, सेा हास्य पुनि, करुना रौद्राहि जान । बीर, भयरु बीभत्स कहि अद्भुत, सांत बखानि ॥ ३६॥ रति, हासी अरु शोक पुनि क्रोध, उछाहरु भीति । निन्दा, विस्मय पाठ ये स्थायी भाष प्रतीति ॥ ३७॥ प्रति० रस में ३० प्रौर ३१ में दोहों का प्राशय एक ही दोहे में इस प्रकार दिया गया है- मोहायित चाहै दरस घात न भावत कान । आये आदरु ना करै धरि वियोक गुमान ॥