पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/४६

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[असंभव ] कहत असंभव होत जब बिनु संभाषन काजु । गिरिधर धरि है गोपसुत को जानत इहि श्राजु ॥ ११७ ॥ [ असंगति ] तीनि असंगति काज अरु कारन न्यारे ठाम । और ठौरहीं कीजिए और टौर को काम ॥ ११८ ॥ और काज प्रारंभिए और करिए दौर । कोयल मदमाती भई झजत अम्बा मौर ॥ ११६ ॥ तेरे अरि की अंगना तिलक लगायो पानि । मोह मिटायो नाहिं प्रभु मोह लगायो प्रानि ॥ १२० ॥ [ विषमालंकार विषम अलंकृत तीनि विधि अनमिलते को संग । कारन को रंग और कछु कारज और रंग ॥ १२१ ॥ और भलो उद्यम किए हात धुरी फल प्राइ । अति कोमल तन तीय को कहा बिरह* की लाइ ॥ १२२ ॥ खङ्गालता प्रति स्याम ते उपजी कीरति मेत । सखि लायो घनसार पै अधिक ताप तन देत ॥ १२३ ॥ [ समालंकार] अलंकार सम तीनि बिधि जथा जोग को संग । कारच मैं सब पाइए कारन ही के अंग॥ १२४॥ माठा० काम । (प्र० क )