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पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/४७

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( १७ ) श्रम बिनु कारज सिद्ध जब उद्यम करतहि होइ । हार बास तिय-उर करयो अपने लायक जोइ ॥ १२५ ।। नीच संग अचरज नहीं लछमी जलजा प्राहि । जस ही को उद्यम कियो नीकै पाये। ताहि ॥ १२६ ।। [विचित्रालंकार]] इच्छा फत्त विपरीत की कीजै जतन बिचित्र । नवत उच्चता लहन को जे हैं पुरुष पवित्र ॥ १२७ ॥ [अधिकालंकार अधिकाई प्राधेय की जब अधार से होइ । जो अधार प्राधेय ते अधिक अधिक ए दोइ ॥ १२८ ॥ सात दीप नौखंड में तुम जस नाहिं समात । शब्द-सिंधु केतो जहां तुम गुन बरने जात ॥ १२६ ॥ [अल्पालंकार ] अल्प अल्प प्राधेय तें सूछम होइ अधार । अँगुरी की मुंदरी हुती भुज में करति बिहार ॥ १३० ॥ [अन्योन्यालंकार ] अन्यान्यालंकार है अन्योन्यहि उपकार । ससि ते निसि नीकी लगै निसिही तैससि-सार ॥ १३१ ॥ [विशेषालंकार] तीनि प्रकार विशेष हैं अनाधार प्राधेय । थारो भ जब अधिक सिद्धि को देय ॥ १३२॥

  • पाठा० कीरति । (प्र०क ) पाठा० पहुँचनि (प्र०क)

भा० भू०-२