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( १८ ) वस्तु एक को कीजिए बनन ठौर अनेक । नभ ऊपर कंचनलता कुसुम स्वच्छ है एक ॥ १३३ ॥ कल्पवृक्ष देख्यो सही तो को देखत नैन । अंतर बाहिर दिसि बिदिमि है तीय सुखदैन ॥ १३४॥ [ व्याघात ] व्याघात जु सेा और तें कीजै कारज और । बहुरि घिरोधी ते जवै काज ल्याइए ठौर ॥ १३५ ॥ सुख पावत जासेों जगत तासे मारत मार । निहचैं जानत बाल तौ करत कहा परिहार ॥ १३६ ॥ [ कारणमाला] कहिए गुंफ गुंफ परंपरा कारनमाला होत। नोतिहि धन, धन त्याग पुनि तातें जस उद्योत ॥ १३७ ॥ [ एकावली] गहत मुक्त पद रीति जब एकापति तब मानु । दूग श्रुति ली श्रुति बाहु लों, बाहु जानु नौं जानु ॥ १३८ ॥ [ मालादीपक] दीपक एकावलि मिलें मालादीपक नाम । कामधाम तिय-हिय भयो तिय-हिय को तू धाम ॥ १३६ ॥ [सार अलंकार ] एक एक तें सरस जब अलंकार यह सार । मधु से मधुरी है सुधा कविता मधुर अपार ॥ १४० ॥