पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/५०

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( २० ) तु प्ररि भाजत गिरत फिरि भाजत है सतराइ*। जोवन, विद्या, मदन, धन मन्द उपजावत प्राइ ॥ १४८ ॥ [ कारकदीपक ] कारकदीपक एक में का ते भाय अनेक । जाति चितै, प्रावति हँसति, पूति बात बिबेक ॥ १४६ ॥ [समाधि अलंकार ] सेा समाधि कारज सुगत और हेतु मिलि होत । उत्कंठा तिय की भई प्रथयो दिन उद्योत ॥१५॥ [ प्रत्यनीक ] प्रत्यनीक से प्रबल रिपु ता हित में करि जोर । नैन समीपी श्रधन पर कंज चढ़यौ करि दार ॥ १५१ ॥ [ काव्यापत्ति] काव्यार्थापति को सबै हरि बिधि बरनत जात मुख जीत्यौ वा चंद से कहा कमत्त की बात ॥ १५२ ।। [ काव्यलिंग] काव्यलिंग जब जुक्ति में अर्थ-समर्थन होइ। तोको जीत्या मदन जो मां हिय में सिष सोइ ॥ १५३ ॥

  • पाठा० सिर नाइ। ( प्र० ख )

यह दोहा प्रति० क में नहीं है। डा. ग्रिमर्सन ने इसके स्थान -भूषण से दो दोहे उद्धृत किये हैं। कवि केमुत्तिक न्याय को काव्यापति गात । यह पाठ भारतजीवन की प्रति का है