पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/६६

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( ३६ ) 'रसविच्छेदहेतुत्वात् मरणं नैव वर्यते ' के अनुसार नहीं दी गई है यह उचित है पर अन्य लोक में पुनर्मिलन का विचार कर दिया जाता तो अनुचित भी न होता । अभिलाषा, चिंता, स्मरण. गुण-कथन. उद्वेग. प्रलाप, व्याधि, जड़ता, उन्माद तथा मरण दस हाव हुए। उद्वेग-व्याकुलता से चित्त का स्थिर न रहना व्याधि-विरह के कारण शरीर का कृश तथा पांडु वर्ण श्रादि होन: और मानसिक व्याधि अर्थात् कष्ट का बढ़ना । ३३.३७-किसी काव्य या नाटक में जो भाव स्थायी रूप से वर्तमान रहता है और अन्य भाव केवल जिसके सहायक मात्र होकर उसकी पुष्टि करते हैं वे स्थायी भाव कहलाते हैं । वे भाव, विभाव, अनुभाव प्रादि से अभिव्यक्त होकर पाठक या दर्शक के मस्तिष्क में जो श्रानंद अर्थात रसत्व उत्पन्न करते हैं, उसी को रस कहा जाता है। साहित्य शास्त्र में नौ स्थायी भाव माने गए हैं और उनसे नव रसों की अभिव्यक्ति होती है। नीचे कोष्ठक में दिखलाया जाता है कि किस स्थायी भाव से किस रस का उद्वोधन होता है। स्थायी भाव रति हांसी शोक । क्रोध उत्साह भीति निंदा विस्मय गार हास्य करुणा रौद्र वीर भयानक वीभत्स अद्भुत नवम रस शांत का स्थायी भाव भाषाभूषण में नहीं दिया गया है पर उसका स्थायी भाव साहित्य दर्पण में शम अर्थात् निर्वेद माना गया है। श्रृंगार के सयोग और वियोग दो भेदों का उल्लेख हो चुका है । वीर के दान, धर्म, युद्ध और कर्म के अनुसार चार भेद हैं । वीभत्स का स्थायी भाव जुगुप्सा या घृणा है, निंदा नहीं ।