( ३७ ) 1 no ३८-३६ मन के भाव किसी वस्तु विशेष के द्वारा ही अभिव्यक्त होते हैं और जिस वस्तु से रस उबुद्ध हो उसको विभाव कहते हैं । ये दो प्रकार के हैं ---उद्दीपन और बालंबन । जिनसे रस उत्तेजित या उद्दीप्त होता है उसे उद्दीपन कहते हैं, जैसे चंद्र, शरद आदि । जिनके अवलंबन से मन में किसी का चित्र उपस्थित होकर रसोत्पत्ति हो उसे श्रालंबन कहते हैं, जैसे नायक, नायिका श्रादि । स्थायी भाव का सहायक होकर जो अन्य भाव गौण रूप से उसको पुष्टि मात्र करता है वह व्यभिचारी या संचाची भाघ कहलाता ये तेतीस प्रकार के हैं । साहित्यदर्पण का० १७२ और १७३ में व्यभि- चारी भाव को परिभाषा तथा भेद और का. १७४ से २०७ तक उन भेदों का वर्णन दिया गया है । ४०-४२–निर्वद-वैराग्य, शरीरविषयक असारता तथा जीव पर- मात्मा की अभेदता का ज्ञान भौर निज विषय में अवमानना की उत्पत्ति । देय-दीनता (दुःखजनित) अभ्या-ईया, दूसरे के गुण में गर्ववश छिद्रान्वेषण करना । उन्माद - प्रेम, दुःख प्रादि से चित्त का ठिकाने नहीं रहना । प्राकृतिगोपन - भय, गौरव, लजा श्रादि के कारण प्रसन्नता श्रादि को छिपाना। ( साहित्य दर्पण में इसे 'अवहिस्थ ' लिखा गया है ) चपलता-मात्सर्य, द्वेष श्रादि से हुई अस्थिरता । अपामार----ग्रहादि के कारण चित्त का विनिप्त होना, जिससे भूमि- पतन, कंप आदि हो। व्रीडा-वजा । जड़ता--भयादि से निस्तब्ध हो जाना । धृति - पूर्ण संतोष, धैर्य । मति-इच्छा। .
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