( ४६ ) ( १ ) प्रथम निदर्शना--- जब को वाक्यों का अर्थ एक हो ( असम को समरिना)। जैसे पूर्ण चंद्रमा निष्कलंक है, वैसे ही सौम्य दाता भी । यहाँ दोनों वाक्यों का भाव है कि दाता का सौम्य होना वैसा ही है जैसा पूर्ण चंद्र का निष्कलंक होना । यह असंभव होते भी दोनों वाक्यार्थ बिंबप्रतियिब भाव से एक से कहे गए हैं । ( २ ) द्वितीय निदर्शना-- जब अन्य ( उपमान ) का गुण दूसरे ( उपमेय ) में स्थापित कर एकता लाई जाय । जैसे, देखो ये नेत्र खंजन- लीला का ( पलता ) सहज हो धारण किए हैं। इसमें एक ही वाक्य में खंजन के गुण का नेत्र में, असंभव होते भी, श्रारोप किया गया है। अर्थात् वाक्यार्थ का सादृश्य में पर्यवसान कर दिया गया। ( ३ ) तृतीय निदर्शना --- कार्य । उदाहरण रूप में ; देखकर भला बुरा फज कहना । उदा. तेजस्वी के आगे शक्ति निबल हो जाती है, जैसा महादेव प्रौः कामदेव का हाल हुा । ११-उपमान से उपमेय का प्राधिक्य प्रगट करना व्यतिरेक है। जैसे, मुख कमल सा है पर ( श्राधिक्य यह है कि ) इससे मीठी बातें निकलती हैं। इसमें और प्रतीप में इतनी ही विभिन्नता है कि इसमें प्राधिक्य प्रकट रूप में कहा जाता है -जब कई बात एक साथ ही होती हुई अच्छी सरस चाल से कही जाय । जैसे, (आपकी) कीति । भागते हुए ) शत्रुओं के समूह के साथ साथ समुद्र तक पहुँच गई । प्रथम विजय तथा दूसरा पराजय के कारण एक दूसरे का पीछा करते हुए साथ ही समुद्र तक पहुँचे । १३.४ --- घिनोक्ति-.- दो प्रकार की है-
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