पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/९३

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१६७ -जब गुण १६६ -जब दोष में भी गुण मान लिया जाय । जैसे, वह विपत्ति श्रावे, जिसमें भगवान हृदय में सदा रहा करें। यह साधारणतः प्रसिद्ध है कि विपत्ति में परमेश्वर का ध्यान होता है इसी से यद्यपि विपत्ति दोष है पर विपत्ति में ईश्वर को हृदय-स्थित करने की शक्ति पाकर उसे गुण मान लिया है । में दोष की और दोष में गुण की कल्पना की जाय । जैसे, इसी मीठी बोली के कारण सुग्गा पीजर में बंद हुश्रा । १६८-जब किसी पद के एक अर्थ के अतिरिक्त दूसरा अर्थ भी निक- बता हो । जैसे, । कोई नायिका करती है कि ) हे भ्रमर ! वहाँ जाकर रस क्यों नहीं लेता जहाँ सरस सुगंध है। साथ ही नायिका के कहने का यह तारपर्य है कि सखी ! क्यों नहीं जाती? पति वहाँ हैं जहाँ उस रसीली ( अन्य नायिका ) का वास. स्थान है। १६६-जब प्रस्तुत अर्थ के साथ साथ क्रम से अन्य नाम भी निकलें। जैसे, हे रसिक तुम चतुरों में मुख्य, लक्ष्मीवान तथा सब ज्ञानों के घर हो । इस प्रस्त अर्थ के साथ चतुर्मुख से ब्रह्मा, लक्षमीपति से विष्णु और ज्ञान के धाम से शिव के नाम निकलते हैं। जब अपना गुण छोड़कर समीपवर्ती का गुण ग्रहण करे । जैसे, बेसर का मोती अोठ ( की लालिमा ) से मिलकर माणिक की शोभा देता है इस अलंकार में गुण से रंग का तात्पर्य है । ' भूषण' ने स्पष्ट लिखा है- जहाँ पापना रंग तजि गहै और को रंग। ताको तद्गुण कहत हैं भुषण बुद्धि उतंग ॥ १७१-७२-पूर्वरूप दो प्रकार होता है- (१) जब समीपवर्ती का गुण लेकर पुनः उसे छोड़ अपना पूर्वरूप