पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१००

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भाषाओं का वर्गीकरण श्राने लगा । इसे हम आधुनिक फारसी कहते हैं। मुसलमान-काल में फारस और भारत दोनों स्थानों में उसे राजपद मिल चुका है और आज भी वह एक साहित्य-संपन्न उच्च भाषा मानी जाती है। आजकल ईरान में प्रधान फारसी के अतिरिक्त कई प्रांतीय बोलियाँ प्रचलित हैं; उनके अतिरिक्त प्रोसेटिक कुर्दी, गालचा, वलूची, पश्तो आदि अन्य आधुनिक विभाषाएँ ईरानी भापा-बर्ग में मानी जाती हैं। इस आर्य उप-परिवार की दूसरी गोष्टी भारतीय-आर्य-भाषा-गोष्टी कही जाती है। इसमें वैदिक से लेकर आजकल उत्तरापथ की सभी देशभापाएँ आ जाती हैं । इसी में भारोपीय परिवार का प्राचीन- तम ग्रंथ ऋग्वेद पाया जाता है। उस समय की भियाओं का भी इस विशाल ग्रंथ से कुछ पता लगता है। इसमें छंदस अथवा काव्य की भाषा की समकालीन प्राकृतों का कोई इतिहास अथश साहित्य तो नहीं उपलब्ध है तो भी अर्थापत्ति से विद्वानों ने उन प्राथमिक प्राकृतों की कल्पना कर ली है । उसी काल की एक विभापा का विकसित राष्ट्रीय और साहित्यिक रूप पाणिनि की भाषा में मिलता है। इसी अमर भारती में हिंदुओं का विशाल वाङ्मय प्राप्त हुआ है। इसके अतरिक्त मध्यकालीन प्राकृतों का साहित्य भी छोटा नहीं है। पाली, प्राकृत (महाराष्ट्री, शौरसेनी, अर्धमागधी, पैशाची), गाथा और अपभ्रंश सभी मध्य-प्राकृत ( या मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ ) कही जाती हैं और तृतीय प्राकृतों अथवा आधुनिक प्राकृतों में अपभ्रंश के अर्वाचीन रूप अवहट्ट और देश भाषाएँ आती हैं। ईरानी और भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त एक ऐसा भाषा-वर्ग भी है जो काश्मीर के सीमांत से भारत के पश्चिमोत्तर सीमा-प्रान्त तक घोला जाता है। उसे दायि भाषा-वर्ग कहते हैं, ग्रियर्सन तथा अन्य अनेक विद्वान् इसे दोनों वर्गों की संधि मानते हैं। ये दरद भाषाएँ निश्चय ही मिश्र और संधिज हैं, क्योंकि इनमें भारतीय और ईरानी दोनों के लक्षण मिलते हैं। इन्हें ही स्थात् भारत के प्राचीन वैयाकरणों ने 'पैशाच' नाम दिया था। इस भारत-ईरान-मध्यवर्ती भापा-वर्ग में