पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/११७

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९२ भाषा-विज्ञान आसाम-वर्मा-सीमांत की कई छोटी छोटी बोलियाँ सम्मिलित की जाती हैं। इन दोनों शाखाओं के बीच में उत्तर-आसामी वर्ग की वोलियाँ पड़ती हैं। इतना निश्चित हो गया है कि इन उत्तरी पहाड़ों की बोलियाँ ऊपर की किसी भी एक शाखा में नहीं रखी जा सकती उनमें दोनों शाखाओं की छाप देख पड़ती है। इससे उत्तर-आसामी एक स्वतंत्र शाखा मानी जाती है। इसकी अलग भौगोलिक सत्ता है। तिब्बत हिमालयी शाखा में फिर तीन वर्ग होते हैं। एक तो तिब्बती अथवा भोट भाया है जिसमें तिव्वत की मॅजी-सवरी साहित्यिक भापा और उसी की अनेक बोलियाँ सम्मिलित की जाती हैं। शेष दो वर्ग हिमालय की उन बोलियों के हैं जिनकी रचना में सुदूर तिव्वती नींव स्पष्ट देख पड़ती है। तिव्वती भाषा का वाङ्मय बड़ा विशाल है। उसके धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक श्रादि ग्रंथों से भारत की संस्कृति खोजने में भी बड़ी सहायता मिलती है। सातवीं शताब्दी ई. में भारतीय प्रचारकों ने तिव्वत में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था, वहाँ की भाषा को सँवार- सिंगार कर उसमें संपूर्ण बौद्ध त्रिपिटक का अनुवाद किया था । अन्य अनेक संस्कृत ग्रंथों का भी उसी समय तिब्बती में अनुवाद और प्रणयन हुआ था। अतः तिब्बती भाषा में अव अच्छा वाङ्मय है, पर वह सब भारतीय है। भारत में जिन ग्रंथों की मूल-प्रति नहीं मिलती उनका भी तिब्बती में अनुवाद मिला है। इस तिब्बती भाषा की कई गौण बोलियाँ भारत की सीमा पर बोली जाती हैं। उनके दो उपवर्ग किए जा सकते हैं--एक पश्चिमी और दूसरा पूर्वी । पश्चिमी में वाल्तिस्तान अथवा बोलौर बाल्ती और पुरिक बोलियाँ तथा लदाख की लदाखी बोली आ जाती है। बाल्ता-पुरिक और लदाखी के बोलनेवाले एक लाख इक्यासी हजार हैं, पर इनमें से कुछ भारतीय सीमा के बाहर भी रहते हैं। दूसरा उपवर्ग पूरबी है और उसमें भूटान की बोली ल्होखा, मिकिम की दालोमा, नेपाल की शपी और कागते, तथा कुमाऊँ-गढ़वाल की भोटिया