पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१५०

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ध्वनि और ध्वनि-विकार १२५ उच्चारण में हवा कहीं रुकती नहीं; इसी से इन वर्गों को सप्रवाह, अव्याहत अथवा अनवरुद्ध (Continuant ) भी कहते हैं । स, श, ष, ज आदि ऐसे ही धर्प वर्ण हैं। (३ ) स्पर्श-घर्ष कुछ वर्ण ऐसे होते हैं जिनके उच्चारण में स्पर्श तो होता है पर साथ ही हवा थोड़ी रगड़ खाकर इस प्रकार निकलती है कि उसमें ऊष्म ध्वनि भी सुन पड़ती है। इन्हें स्पर्श-घर्ष कहते हैं। जैसे हिंदी के च, छ, ज, झ। (४) अनुनासिक-जिस वर्ण के उच्चारण में किसी एक स्थान पर मुख बंद हो जाता है और कोमल तालु ( कंठ-स्थान ) इतना झुक जाता है कि हवा नासिका में से निकल जाती है वह अनुनासिक कहा जाता है। जैसे–न, म । (५) पार्थिक-जिसके उच्चारण में हवा मुख के मध्य में रुक जाने से जीभ के अगल बगल से (पार्व से ) बाहर निकलती है वह वर्ण पाश्विक होता है; जैसे---हिंदी 'ल' अथवा अँगरेजी 11 (६) लुंठित उन ध्वनियों को कहते हैं जिनके उच्चारण में जीभ बेलन की तरह लपेट खाकर तालु को छुए; जैसे (७) उक्षिप्त उन ध्वनियों, को कहते हैं जिनमें जीभ तालु के किसी भाग को वेग से मारकर हट आवे; जैसे-ड और द । (८) इन सात प्रकार के व्यंजनों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी वर्ण होते हैं जो साधारणतया व्यंजनवत् व्यवहृत होते हैं पर कभी-कभी स्वर हो जाते हैं; जैसे-हिंदी य और व । ऐसे व्यंजन अर्ध स्वर कहे ... जाते हैं। - अनुनासिक, पार्श्विक और लुंठित व्यंजन कभी कभी एक ही वर्ग में रखे जाते हैं और सब द्रव वर्ण कहे जाते हैं । कुछ लोग अर्द्ध स्वरों ( इ उ ) को भी इसी द्रव वर्ग में रखते हैं। क्योंकि इन सव में एक सामान्य गुण यह है कि यथासमय स्वर का भी काम करते हैं।