पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२६९

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२४० भाषा-विज्ञान भक्ष, अद्, अश् आदि में पहले भे रहा होगा, पर अब नहीं है । भू और अस् अथवा स्पश् और हश् पहले अर्थ-भेद के कारण जीते थे पर पीछे उनका भेद-भाव नष्ट हो जाने से उनके अनेक रूप भी नष्ट हो गए। (३) तीसरी बात यह है कि अर्थ-भेद का सभ्यता से संबंध रहता है । जो समाज जितना ही अधिक सभ्य होगा उसकी भाषा में अर्थ-भेद उतना ही अधिक होगा। हम लोग सात से भी अधिक रंगों के नाम लेते हैं पर संथाल केल दो रंग जानते हैं-काला और सफेद । उद्योतन उस प्रक्रिया का नाम है जिससे अच्छा खराब अथवा अन्य कोई दूसरा विशेष अर्थ रूपविशेष के साथ संबद्ध हो जाता है- ३. उद्योलन का नियम इस प्रकार जो द्योतकता आ जाती है वही पीछे से उन रूपों की सहज संपत्ति मालूम होने लगती है ! उदाहरण के लिये हिंदी का 'हा' प्रत्यय पहले सामान्य संबंध प्रकट करता था. जैसे स्फुलिहा लड़का, उतरहा आदमी, पुरविहा चावल, पाठशालिहा विद्यार्थी इत्यालि, पर संसर्ग के प्रभाव से

अब इस प्रत्यय में गर्व का भाव घुल गया है, जैसे रुपयहा, कुर्सिहा;

मोटरहा । दूसरा उदाहरण ई' प्रत्यय है । साहबी, नवाबी, गरीवी, अमीरी, मुनीमी आदि में 'ई' का सामान्य अर्थ है, पर पीछे से साहधी ठाट, नवाबी चाल, मुनीमी ढंग, स्कूली रंग आदि प्रयोगों के प्रभाव से 'ई' में एक नई द्योतकता आ गई है। इसी को कहते हैं उद्योतन श्रथवा अर्थोद्योतन । प्रारंभिक काल में लिंगभेद के प्रत्यय भी प्राय: उद्योतन से ही वन गए थे। घटनावश अथवा कभी किसी बलावल के विचार से जो प्रत्यय बीवाचक अथवा पुरुपवाचक शब्दों के साथ लग गए, पीछे से वे उन्हीं लिंगा के द्योतक बन बैठे । संस्कृत के श्रा, ई आदि लिंग-द्योतक प्रत्यय इसी प्रकार बने हैं। पहले (पुल्लिंग ) और माला ( स्त्रीलिंग ) जैसे दोनों लिंग के प्रयोग चले, पर स्त्रीवाचक शब्दों में ही 'आ' अधिक पाए जान से लोगों ने उसे स्त्रीप्रत्यय मान लिया।